गिरिराज के गोंद से अवतरित गंगे
कल- कल, छल-छल
करती मौजों में रवानी लिए,
अविरल कोमल चंचल
निर्मल जल धार लिए,
शिवालिक से बढ़ी शिव का
स्नेह और सम्मान लिए,
जगतारिणी भगीरथ तप
जीवन का सार लिए ।।
पापहारिणी ध्रुवनन्दा
संस्कृति, संस्कार बनी,
हमारी वसुंधरा का कर
श्रृंगार अलंकार बनी,
कर सिंचन शस्य श्यामला
वसुधा की पालनहार बनी,
विष्णुपदी, सुरसरी, देवनदी
लोकहित अनुगामी बनी ।।
मात्र नदी नही ये जीवन धारा,
भरतभूमि ऋषि- मुनियों के
तप को है इसने निखारा,
कालिंदी ,सरस्वती से मिलन
कर प्रयाग में संगम बना डाला,
ज्ञानगंगा, मोक्षदायिनी, पापहारिणी
बन काशी में है सबको तारा
आगे सागर में हो समाहित
खुद को गंगा सागर कर डाला ।।
ज्वलनशील प्रश्न ये सबके लिए
गंगे को दुष्कृत्यों से करोगे दूषित
तो प्यारों जल पान कहाँ से पाओगे ?
आज भी गर तुम न चेते तो,
अटल सत्य पीछे पछताओगे,
सबसे पहले हर हृदय में
माँ का मान जरूरी है ,
कल्याणकारिणी हेतु
अर्चना बारम्बार जरूरी है,
अर्चना बारम्बार जरूरी है ।।
अर्चना मिश्रा