मैं वृक्ष हूं ।
मेरी अपनी वेदनाएं है
मुझमें भी कुछ संवेदनाएं है ।
अंकुरित हुआ
खूब प्रफुल्लित हुआ
तना से पौधा बना
शाखाएं ,कोंपले पत्ते निकले
हर भरा हो लहलहाया
परिंदों का शजर बना
पथिको आश्रय दिया
सबसे जुड़ा सबको समेटा
पतझरर आया पत्ते टूटे
अपने अलग हुए
शाखाएं टूटी
कुल्हाड़ीया चली
धूप तपन वर्षा हवा को सहा
फिर भी नहीं टूटा
मुझे अपनों ने तोड़ा
अपने गांव को छोड़ा
शहर को पलायन किए
मैं आज जर्जर खड़ा हूं
अपनों की प्रतीक्षा में खड़ा हूं
मैं एक वृक्ष हूं ।
धरा का जीता जागता दृश्य हूं ।
हां मैं वृक्ष हूं
मेरी भी वेदनाएं है
कुछ संवेदनाएं है
सत्या पांडेय
वाराणसी