समाजवादी विचारधारा से डरता है दक्षिणपंथ!

सोशलिस्ट मतलब समाजवाद को मानने वाले लोगों को समाजवादी कहा जाता है। यह एक आर्थिक और सामाजिक दर्शन है। जो समाज में सभी की बराबरी की बात करता है। कम्युनिज्म और साम्यवाद भी लगभग समाजवाद का ही रूप है। हमारे संविधान की मूल प्रस्तावना में समाजवाद शब्द नहीं था। सन 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन करके इसे जोड़ा। समाजवाद देश की तमाम संपदा और संसाधनों पर सभी नागरिकों की बराबर हिस्सेदारी की बात करता है। हालांकि कम्युनिज्म और साम्यवाद के बारे में हिंसक क्रांति जैसी कुछ भ्रांतियां हैं। जो दुनिया के कुछ बड़ी-बड़ी क्रांतियों के अध्ययन को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। जो भारत में कम्युनिज्म (कुछ गुटों को छोड़कर) पर प्रासंगिक नहीं है। वैसे हम समाजवाद की ही बात आगे बढ़ाते हैं। भारत में एक बड़ा तबका समाजवाद का पक्षधर रहा है। समाजवादियों का उद्देश रहा है, कि लोकतंत्र में भागीदारी करते हुए सरकार की नीतियों को समाजवादी तरीके से सबके लिए लागू करवाया जाए। बिनोवा भावे, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया भारतीय राजनीति में बड़े समाजवादी पुरोधा रहे हैं । आजादी के बाद देश की राजनीति में जवाहरलाल नेहरू का दबदबा था। और वह भी समाजवाद से बहुत प्रभावित थे। संविधान सभा में सोशलिस्ट शब्द पर चर्चा हुई, हालांकि अधिकांश लोग इस पर सहमत थे। लेकिन इसे प्रस्ताव में शामिल नहीं किया गया। एक समय में इंदिरा गांधी समाजवादी युवा तुर्क कहे जाने वाले कुछ नेताओं के प्रभाव में आई। जिनमें चंद्रशेखर प्रमुख थे। इंदिरा गांधी के तमाम फैसलों में समाजवाद का असर दिखा । एक महत्वपूर्ण बात यहां बताते चलें कि श्रीमती गांधी के प्रधान सचिव ए के हक्सर वामपंथी थे। इंदिरा गांधी के तमाम फैसले आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण को रोकना, अर्बन इनकम और प्रॉपर्टी पर लगाम, बैंकों और इंश्योरेंस का राष्ट्रीयकरण, आयात निर्यात व्यापार का राष्ट्रीयकरण, लैंड रिफॉर्म्स,प्रिवी पर्स जैसी चीजें खत्म करना उनकी समाजवादी सोच को दर्शाता है। अब अचानक वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की सरकार को समाजवादी शब्द से घृणा होने लगी है। अब संविधान से समाजवाद शब्द हटाने की कवायद शुरू हो गई है। अभी बीजेपी नेता राकेश सिन्हा ने एक बयान में कहा कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना से हटा दिया जाए। संविधान संशोधन के लिए 20 मार्च 2020 को सदन की कार्यवाही में इस प्रस्ताव को रखा गया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर भाजपा समाजवाद शब्द से डर क्यों रही है। इसके लिए उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना होगा। वह देश में सामंतवादी प्रथा लागू करने की पक्षधर है। देश की कुछ अगड़ी जातियों के आर्थिक तौर से संपन्न लोगों का राज कायम करना चाहते हैं। इसकी झलक अप्रत्यक्ष रूप से पिछले 6 साल की सत्ता में देशभर में दिखाई दे रही है। देश की तमाम संपत्ति और संसाधन कुछ लोगों के पास केंद्रित होती जा रही है। देश का आम आदमी गरीब और गरीब होता चला जा रहा है। पिछले 5 वर्षों के आंकड़े उठाकर देखिए। सारी तस्वीर साफ नजर आने लगेगी। यह पूंजीवादी व्यवस्था लागू करने की ओर आगे बढ़ रहे हैं। जहां आम आदमी के मौलिक अधिकारों तक की परवाह नहीं की जाती है। उसे गुलामी की अंधेरी गुफा में धकेल दिया जाता है। वह रोटी के एक एक टुकड़े के लिए पूंजीपतियों की मोहताज हो जाता है। समाजवाद से चिढ़ नहीं पैदा हुई है।यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच अनवरत चलने वाली जंग है यह। आज पूंजीवादी ताकतें लंबी लड़ाई के बाद सत्ता में काबिज हैं। और अपनी नीतियों पर अमल करते हुए आगे बढ़ रही हैं। समाजवाद थका थका सा लग रहा है। वह हतप्रभ है । क्योंकि उसे अपने सिद्धांतों और मूल्यों की परवाह होती है। जबकि पूंजीवाद सिर्फ जीतना चाहता है। किसी भी कीमत पर हर हाल में अपनी जीत के लिए रास्ता तलाशने में लगा रहता है। चाहे वह महामारी में हजारों लाशों के बीच हो या युद्ध के समय शहीद हुए जवानों के रूप में हो। ऐसा नहीं है कि देश समझ नहीं रहा है। वह समझ रहा है। लेकिन सत्ता के साधनों और संसाधनों के सामने लाचार समाजवाद इसे देखते रहने के लिए बाध्य है। पूंजीवादी व्यवस्था देश में हावी है। जिसके कुछ उदाहरण में बताता हूं । अभी हाल में ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 में भारत102 वां स्थान प्राप्त कर सका। यह दक्षिण एशियाई देशों का सबसे निचला स्तर है। मतलब देश में गरीबी बढ़ती जा रही है। वह भुखमरी का भयानक रूप से शिकार है। और दूसरी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 1% अमीरों के पास 70% आबादी की कुल संपत्ति का 4 गुना धन है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि देश के 63 अरबपतियों के पास 2018-19 के भारत के बजट से ज्यादा धन है। कुल मिलाकर इस देश की सरकार आम जनता के लिए कोई काम नहीं कर रही है। वह पूंजीवाद की हितैषी है। देशभर के संसाधनों पर कुछ लोगों को काबिज करने की साजिश सत्ता के गलियारों में चल रही है। आम नागरिक की तरफ कोई ध्यान नहीं है। इसीलिए तो समाजवाद से इतनी चिढ़ हो रही है। ये खेल बहुत खतरनाक है जो खेला जा रहा है। इसे रोकना होगा। नहीं तो देश की तमाम आबादी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाएगी। वहां मानवता के कोई मायने नहीं होते। इसीलिए पूंजीवाद के बढ़ते कदमों को रोकना होगा। तथा लोकतांत्रिक समाजवाद की पृष्ठभूमि को और अधिक मजबूत बनाने के प्रयास किए जाने चाहिेए।
डा राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक

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