दूर-दूर तक जिधर नजर उठ जाती है प्रकृति का मनोहारी स्वरूप नजर आता है। मन को मदहोश कर देने वाली सुंदरता मस्तिष्क को भेदकर हृदय में उतर जाने वाली महमहाती खुशबू, कितने रंगों से रंगी हुई, हरे हरे खेतों में पीले सरसों के फूल, अहा! जैसे धरती का स्वर्ग यही है। हां यह धरती ही है जिस पर किसान अपनी मेहनत और लगन से तरह-तरह के बीज उगाकर फसलों के अलंकार से इसे सजाता है, सवांरता है। यह फसलें सिर्फ धरती का श्रृंगार ही नहीं है,यह संपूर्ण विश्व के जीव जगत की पालनहार हैं। खेत हैं, खलिहान हैं, वन और बाग हैं। यह सब प्रकृति के उपहार हैं यह सब। नदी, नाले, झीलें और पहाड़ यही तो सृष्टि का प्राकृतिक स्वरूप है, धन-धान्य से परिपूर्ण है संपूर्ण प्रकृति। विकास के अगणित सोपान हम चढ़ते चले गए। विज्ञान के चरम तक हम पहुंच गए हैं। लेकिन हम कहां से कहां पहुंचे हैं, क्या यह सवाल कभी हमने अपने आप से किया है। हम विकास के नाम पर प्रकृति की जगह भौतिकता को दे रहे हैं। हमने बड़ी-बड़ी मशीनों को तो ईजाद कर लिया, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर लिए हैं। हवा में उड़ने का दम इन्हीं मशीनों पर हम भरते हैं। बड़े बड़े उद्योगों से विश्व की अर्थव्यवस्था बदलती हुई दिखाई दे रही है। दुनिया के कई बड़े-बड़े राष्ट्र औद्योगिक नीति के चलते आर्थिक रूप से समृद्ध हुए हैं, और महाशक्ति बनकर उभरे हैं। विकास की अंधी दौड़ में बेतहाशा दिशाहीन होकर भागता आदमी, शायद अपने बुद्धि और कौशल को भुलाकर मात्र मशीन बन गया है। औद्योगीकरण से अर्थव्यवस्था मजबूत होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन हर काम की एक सीमा होती है, सीमा से आगे बढ़ना विनाशकारी ही साबित होता है। दुनिया कहां खड़ी है विभिन्न देशों में क्या-क्या घट रहा है, इस पर हमारी नजर होनी चाहिए। लेकिन हमें अपने राष्ट्र के आधारभूत सरोकारों, सभ्यता, संस्कृति और जरूरतों पर पैनी नजर रखनी चाहिए। हम सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां की सत्तर प्रतिशत आबादी अपना जीवन खेती पर निर्भर करती है। और लगभग देश के आर्थिक विकास में साठ प्रतिशत योगदान कृषि क्षेत्र का है। हम राष्ट्र का औद्योगिकीकरण करने को तत्पर हैं, देसी विदेशी कंपनियों को हमने न्योता दिया है, इसके लिए भूमि अधिग्रहण का कार्य हमारी सरकारों को करना है, सरकार ने उसके लिए विशेष आर्थिक जोन के नाम से एक संस्था को खड़ा कर दिया है। राष्ट्र का विकास आम आदमी के जीवन का विकास है, हमारा राष्ट्र जितना समृद्ध होगा आम आदमी के जीवन में भी उतनी ही समृद्धता आएगी। लेकिन कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण कर के हम पूरे देश की धरती पर सिर्फ उद्योग ही स्थापित कर देंगे, तो हमारे देश का परंपरागत व्यवसाय तो ध्वस्त हो जाएगा। किसान असहाय मात्र मजदूर बनकर रह जाएगा। वह भूमि, जिसका अधिग्रहण करके तुम आर्थिक विकास का सपना देख रहे हो, वह भूमि का टुकड़ा तुम्हारे लिए सिर्फ एक भूमि का टुकड़ा हो सकता है, परंतु एक किसान के लिए वह उसका गौरव है, रियासत है, वह खेत उसका आत्म सम्मान है, उसकी उम्मीदों, कल्पनाओं और सपनों के साथ जुड़ा है। भूमि का वह छोटा सा टुकड़ा, जो उसका खेत है अगर उसे किसान का ईश्वर मान लिया जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि सरकारी संस्थाओं में बैठे नीति नियंता जो पूंजी और पश्चिमी सभ्यता की पैदाइश हैं, वह क्या जाने किसान खेत में प्रवेश करने के पहले मेंड के पैर छूता है, वह ठिठुरती शीत में और तपती गर्मी में भी जूते चप्पल पहनकर खेत में नहीं घुसता। वह हल,बैल, कुदाल सब की पूजा करता है। सरकारी नीतियों के गैर जिम्मेदाराना हरकतों का प्रभाव किसानों पर पड़ा है। वह तंग हाल परेशान हालत में है। फिर भी वह हार नहीं मानता, और खेत जोतता है हर बार, उसमें बीज भी बोता है। 6 महीने इंतजार करता है, वह खेत उसकी उम्मीदों की फसल है, इस बीच किसानों की आत्महत्याओं की बहुत सारी खबरें आ रही हैं। इसके पीछे सरकारी तंत्र की साजिशीय अनदेखी है। सूखे और महंगाई की मार झेल रहा किसान कब तक लीक पीटेगा, वह हार कर और गरीबी से घबराकर भागेगा तो आत्महत्या करेगा, या उसकी भूख का लाभ उठाकर सरकारें उसे खेत बेचने पर मजबूर करेगी, यही खेल चल रहा है। सरकारी तंत्र का शिगूफा है कि अब कृषि से देश का और आम आदमी का आर्थिक स्तर नहीं बढ़ रहा है तो हम तुम्हारी जमीन खरीदकर उद्योग लगाएंगे और किसानों को रोजगार देकर उनका जीवन खुशहाल बनाएंगे, लेकिन इससे सरकार की शैतानी साजिश की बू आ रही है। वह किसान को रोजगार नहीं उपलब्ध करा रहा है बल्कि उसे मजदूर बनाकर गुलाम बना देना चाहता है। सेज बनाने से पहले सरकारों ने क्या किसानों का जनमत संग्रह करवाया?? नहीं ! और सबसे बड़ी बात जहां-जहां सेज के तहत जमीन अधिग्रहण की गई, किसानों ने भारी विरोध किया। वह अपनी जड़ों को बेचना नहीं चाहता। उनमें भारी रोष है। हर जगह किसानों के विरोध प्रदर्शनों का दमन किया गया। हमारी दमनकारी सरकारों का रूप ऐसा रहा है कि ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियां भी शरमा गई।
( भूमि अधिग्रहण कानून “सेज” पर विश्लेषणात्मक लेख जो मैंने 2003 में लिखा था)
डा राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक।