प्रदत्त विषय
वीर रस आधारित संस्मरण
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यह बात उन दिनों की है। जब हम भोपाल में कक्षा सातवीं में अध्ययनरत थे। शाला से कुछ दूरी पर सरकारी क्वार्टर में मेरी सहेली का घर था। मध्यान्ह शाला की आधी छुट्टी के दौरान हम सभी सहेलियाॅं मिलकर सह भोज करते। सहेली की माताजी की तबीयत खराब होने की वजह से मेरी सहेली एक दिन भोजन का टिफिन लेकर नहीं आई। हम दोनों ने तय किया क्यों ना सहेली के घर ही चले जाये। गर्मी का मौसम था। तपती दोपहर में सभी लोग घरों के अंदर होते। जैसे ही हम शाला से निकलकर चौराहे से गली की ओर मुड़ रहे थे। एक अजनबी हमारे पीछे पीछे साइकिल चलाते हुए आया। पास आकर मेरी सहेली से कोई पता पूछने लगा। सहेली पहले तो पता बता रही थी लेकिन वह कुछ बेवजह की बातों में हमको उलझा रहा था। चारों तरफ गर्मी की तपती दोपहरी में सुनसान सड़क और हम दोनों नादान। उस व्यक्ति के द्वारा पता पूछा जाने पर कुछ ऐसा लग रहा था। कुछ न कुछ हमारे साथ गलत हो रहा है। पर उम्र की नादानी से स्पष्ट नहीं था, कि क्या गलत हो रहा है? आज बड़ा होने पर समझ आती है की दरअसल उस समय मेरी सहेली ने कान में सोने की बालियाॅं पहन कर रखी थी, और ऐसा भी याद पड़ता है, कि वह सहेली के कान तक हाथ ले गया था। हम दोनों ने डरते -डरते कदमों को गति प्रदान की। वह हमारे पीछे -पीछे साइकिल तेज गति से ला रहा था। उसने मेरी सहेली का हाथ पकड़ लिया। मैंने अपनी सहेली का दूसरी तरफ से हाथ जोर से खींचा। हम दोनों के दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गई थी। उस आदमी का साइकिल पर नियंत्रण नहीं होने की वजह से वहाॅं थोड़ा गिरने की स्थिति में आ गया। वह हैंडल को पकड़ने की कोशिश में था याद पड़ता है मेरी सहेली मुझसे थोड़ी ज़्यादा समझदार थी। उसने उसके पिछले टायर पर जोर से पैर से प्रहार कर दिया था। एक और से मैंने सहेली का हाथ खींच लिया था। मैं जोर से चिल्ला पड़ी । सच्चू भागो, और हम दोनों भागते- भागते सीधे सच्चू के घर पर ही रुके। हमारी साॅंसें फूली हुई थी। दरवाजा खटखटाने पर सच्चू की मम्मी ने जैसे ही दरवाजा खोला। उन्हें सारी घटित हुई घटना बताई। बाहर आकर तुरंत उन्होंने देखा। वह अजनबी आदमी ढूॅंढने पर नहीं दिखाई दिया। बचपन का वह दिन जब भी याद आया। अन्य बच्चों को भी सुरक्षा की दृष्टि से सतर्क रहने के लिए सदैव बताया। बचपन का वह दिन और हम दोनों की वीरता आज भी मन को खुश कर देती है।
पूर्णिमा मलतारे
१२/५/२२