आज के समारोह में मेरा प्रयास:-
!! श्रीं !!
समांत -अर, पदांत-जीवन
211×8 (8-भगण).
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पीर कहूँ किससे मन की अब बीत रहा अति दुश्कर जीवन ।
दर्द भरे दिन बीत रहे लगता दुख का है’ बना घर जीवन ।।1
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शीतलता नित यामिनि में जब चंद्र बिखेर रहा सबके घर ।
तो बढ़ती अकुलाहट सी बहता बनता तब निर्झर जीवन ।।2
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जीवन शून्य हुआ उनके बिन मूर्छित चेतनता लगती अब ।
भूल गया हँसना लगता खुद मार रहा नित ठोकर जीवन ।।3
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संग मुझे तुम ले न गये तज के तुम तो चुपचाप गये जब ।
ध्यान किया मम दर्द नहीं लगता खुद का मुझको डर जीवन ।।4
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लीन हुए तुम दूर कहीं अब ओझल होकर पाकर सागर ।
सोच रहा इस पार खड़ा न मिला कुछ भी यह पाकर जीवन ।।5
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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