गुरुवर आपके उपकार का,कैसे चुकाऊं मैं ऋण, लाख कीमती धन भला,गुरु है मेरा अनमोल- डॉ. रामकिशन यादव
चंद्रिका कुशवाहा
सूरजपुर ब्यूरो (अमर स्तंभ)
कैरियर गुरू डॉक्टर रामकिशन यादव ने गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बताया कि सनातन धर्म की पुनीत परम्पराओं में यद्यपि अनेक परम्पराएं मानव को सदा से कल्याण के मार्ग पर चलाती आ रही हैं , परन्तु गुरु – शिष्य परम्परा सदानीरा माँ भागीरथी की तरह युगों – युगों से धर्म – परायण जनता का मार्गदर्शन कर रही है। इस पवित्र और सनातन परम्परा का मानस – पटल पर चिंतन होते ही ऐसा सुन्दर और विराट दर्शन होता है कि वो ज्ञानसागर में निमज्जन करने वाले शिष्य कितने पुण्यात्मा और बड़भागी रहे होंगे जिन्होंने अहर्निश अपने गुरुजनों की सेवा कर उस ज्ञान – वारिधि से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष रूपी रत्नों की प्राप्ति कर अपने जीवन को सफल बनाया होगा ; न जाने कितनी सभ्यताएँ , संस्कृतियां और परम्पराएं महाकाल के विकराल महोदर में विलुप्त हो चुकी हैं और भगवान् महाकाल ने उनको आत्मसात् कर लिया है।
वे सभी परम्पराएं आज विकृति को प्राप्त हो चुकी है , परन्तु गुरु – शिष्य – परम्परा की और ध्यान डालने से या चिंतन करने से इस पुनीत परम्परा का एक ऐसा सुन्दर , सात्त्विक और पुनीत दर्शन होता है , मानो यह पवित्र परम्परा अक्षरपुरुष भगवान् की मानवमात्र के लिए अद्भुत सौगात है , जो आज भी भटके हुए मानव को है किसी न किसी रूप में मार्गदर्शन करा रही है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव ने अपने अनुभव , श्रम और पारस्परिक सहयोग से बहुत कुछ सीखा है , परन्तु उस अनुभव और ज्ञान की परम्परा को यथावत् सुरक्षित रखने में गुरु – शिष्य – परम्परा ही सक्षम रही है। इसी परम्परा ने मानव – जाति के ज्ञान और अनुभव को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है।
देश , काल और परिस्थितियों के अनुसार इस परम्परा का किसी भी नाम और रूप में प्रचलन होता रहा हो , परन्तु यह परम्परा है सनातन ! क्योंकि वैदिक साहित्य से लेकर आज तक जितने भी ग्रंथ मानव द्वारा पढ़े जाते रहे हैं , सभी में इस पद्धति का वर्णन मिलता है। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय और वैदिक परम्परा की तो इस गुरु – शिष्य – परम्परा के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती।
पौराणिक साहित्य में भी भगवान् परशुराम के शिष्यों की लम्बी सूची है। वर्तमान साहित्य में गुरु – शिष्य – परम्परा का उसी प्रकार निर्वाह किया जाता है , किन्तु दुर्भाग्य से इस पुनीत परम्परा का वह आदर नहीं रहा – जो हम प्राचीन साहित्य में पढ़ते हैं। प्राचीन साहित्य में तो गुरु को साक्षात् परब्रह्म की उपाधि से विभूषित किया गया है।