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ये दौर ए हुकूमत भी क्या दौर ए हुकूमत है।
बहते हैं अगर आँसू कहते हैं बग़ावत है।
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चेहरों में कई चेहरे परदे में कई परदे,
हँसना भी सियासत है रोना भी सियासत है।
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क्या ख़ाक मली सबने इस मुल्क़ के चेहरे पर,
सूरत है सहर जैसी और रात सी सीरत है।
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मंदिर में हुए हिन्दू मस्जिद में मुसलमाँ हम,
अब ढूँडो कहाँ किसमें इंसाँ की शबाहत है।
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कुछ रातें हैं मैली सी कुछ दिन हैं बहुत उजले,
कुछ तेरे फ़साने हैं कुछ मेरी हक़ीक़त है।
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आईना दिखाता है दरिया मेरी नेकी को,
उसकी यही आदत है मेरी यही आदत है।
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जलते हुए मन्ज़र भी रहते हैं हवाओं पर,
मैं पढ़ ही नहीं पाता कैसी ये इबारत है।
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डॉ कौशल सोनी फ़रहत
9005949999