ये किस बे- शाख़ियों के सहारे हम जियें जा रहें है
ज़हर भी बे क़रारी में देखों कैसे हम पियें जा रहे है
कितनी अज़िय्यत से इस वक्त को गुज़ारा है हम ने
कि तहे स्याह नक़्श मेरी आंखों के दिखें जा रहे है
इस दर्द ओ ग़म में कैसी ज़िदगीं बसर हो खुदा जानें
बस रस्म अदायगी ज़माने की निबाह किये जा रहे है
इस आब ओ दाना मे खाना बदौश सी जिंदगीं हो गई
ये दिल रहगुज़र में नक़्श ए कफ़ ए पा ढुंढे जा रहे है
इस गर्दिश ए दौरां में उल्फत किस मिज़ान पे रखे ‘मीर
फांसले बहुत दोनों के दरम्यान कुछ कम किते जा रहे है
दिलीप वर्मा’मीर