धूम-धाम से सभी ने स्वतंत्रता दिवस मनाया,
आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया।
हर्षोल्लास से शौर्य गीत गाये,
सब संपन्न हुआ सफलतापूर्वक।
पर क्या मैं स्वतंत्र हुई अभी तक?
मैं कौन? मैं नारी।
क्या मैं स्वतंत्र हुई पुरुष की लिप्सा भरी नज़रों से?
क्या मैं स्वतंत्र हुई पुरुष की अधिभ्रष्ट सोच से?
क्या मैं स्वतंत्र हूँ, बस, ट्रेन या किसी भीड़ भरे
सार्वजनिक स्थल पर पुरुष के मलिन स्पर्श से?
क्या स्वतंत्र हूँ मैं किसी सुनसान रास्ते पर
निर्भीकता से चलने के लिए? नहीं!
मैं स्वतंत्र क्यूँ नहीं हो सकती
मैं अभी भी क्यूँ जकड़ी हूँ समाज के बंधनों में?
मैं क्यूँ बंधी हूँ सीमाओं के बंधनों में?
क्यूँ पुरुष की नज़रों में मैं सिर्फ एक खिलौना हूँ?
मैं स्वतंत्र उस दिन हो जाऊँगी
जब पुरुष की निगाहें मुझे देखकर
खुद-ब-खुद झुक जाएँगी।
मैं स्वतंत्र उस दिन हो जाऊँगी
जब हर पुरुष मुझमें अपनी बहन, एक बेटी देखेगा।
मैं स्वतंत्र उस दिन हो जाऊँगी
जब अनजान, सुनसान राहों पर पुरुष को
देखकर निर्भीकता से चल पाऊँगी,
तब मैं सच में स्वतंत्र हो जाऊँगी।
वो मेरी स्वतंत्रता होगी।
सोनिका शर्मा