बोलती हैं कभी खामोशियाँ कभी शोर बोलते हैं,
इस भीड़़ मे सभी के सभी लोग बोलते है।
सुनने लगे हर बात बड़ी बारीकियों से हम,
कहने लगे हर लफ्ज बड़ी सालिकियो से हम,
कहने को वही है,जो कल तलक थे हम,
पर खुद को बदलने मे जमाने लगे है।
जब देखते है पीछे मुड़ कर दूर तक कहीं,
बस धुँध मे लिपटे कुछ फसाने पड़े है।
कुछ दर्द के एहसास,कुछ तसल्ली सी भी है,
बीती हुई एक उम्र के ठिकाने पड़े हैं।
कुछ बात एसी कह गए,जो ना कहते तो अच्छा था,
कहने की थी जो,कह ही देते तो अच्छा था।
बस यही सोचने को उम्र भर के बहाने पड़े हैं।ख़ामोशियो के शोर में दबे अफ़साने पड़े हैं।
अनु शर्मा