बिन तुम्हारे संभल गये ,सामने
तेरे संभल जाते तो अच्छा था
यादों में तेरी उलझे ,सामने तेरे
सुलझ जाते तो अच्छा था
ख्वाहिशें जो थी कभी ,आसमां
छू लेती तो कितना अच्छा था
आजादी से छत पर टहल, पिंजरे से
तू उड़ जाती तो अच्छा था
अपनी गैरत को ना कुचल ,वहां रहना
अपनी शर्तों पे अच्छा था
बेमुरव्वत लोगों के लिए ,तेरा
औकात दिखाना अच्छा था
कभी पतझड़ कभी बसंत ,आता
तेरे जीवन में तो अच्छा था
कांटों से सही चमन अपना, कैसे भी
सजा लेती तो अच्छा था
आंसुओं से दामन ना भिगोती,उसका
दरिया बनाती तो अच्छा था
हर ग़म को डुबाती उसमें, मंजिल
अपनी पा जाती तो अच्छा था
नारी हूं ना समझ अब,तू अबला
सम्मान के संग रहे तो अच्छा था
आगे बढ़ने की ललक,मन में
जगा लेती तो कितना अच्छा था
मायूस नही राह में फूल,राह तू
कांटों से सजा लेती तो अच्छा था
मोहताज ना हो किसी की,खुद
अपने पैरों से चलती अच्छा था
तू ही तो है घर जिससे, बनता
मंदिर सा तो कितना अच्छा था
अहमियत तेरी सब जानते, जीवन
तेरा संवर जाता तो अच्छा था
सविता जैन मनस्वी सहारनपुर