मन इतना प्रेममय हो जाय ।
अवगुणों की तरंग थपेड़े ,
शांत आनन्दमय हो जाय ।
प्रतिष्ठा की चाह से ज्यादा,
हिय, रम्य वाणी से भर जाय ।
देह का रोम – रोम खिल उठे,
मन इतना प्रेममय हो जाय ।
कर्तव्य कोई शेष न रहे,
इतनी अंखड नेह हो जाय ।
दुष्टों की बढ़ती छाया भी,
बारम्बार वंदन कर जाय ।
गहरी तामस का अंहकार ,
घोर विकार ओझल हो जाय।
शत्रु पर उदार दया कर सके,
मन इतना प्रेममय हो जाय ।
ज्योति नव्या श्री
रामगढ़, झारखंड