सूर्य की तपिश
पसीने से तर पथिक ,
हाथ में लिए गमछे से
पोंछता है बार-बार
पसीने की बूंदें ।
इस उम्मीद के साथ
कि आगे किसी वन
बाग या उपवन की
शीतल छाँव मिलेगी ।
लेकिन नहीं मिलेगी उसे
एक वृक्ष तक की छांव
क्योंकि हमने ही तो
उजाड़े हैं वृक्ष और वन
रोकी है बारिश ,रोका है जल ,
उगाए हैं बड़े घने
कंक्रीट के जंगल
बनाई है इमारतें
घर और महल ।।
हरी-भरी वादियों में नहीं
बंजर और पत्थरों के बीच
अब उगने लगे हैं गांव ,
क्योंकि प्रकृति से भागकर
भौतिकता की ओर
हमने बढ़ाएं हैं पाँव ।।
डा.राजेश सिंह राठौर,
वरिष्ठ पत्रकार एवं विचारक