🪔 *दिव्यालय एक साहित्यिक यात्रा*🪔
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संस्मरण –
शीर्षकलड़कपन और चड्डी-बनियान चोर ।
बात लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व की है जब मैं कक्षा चौथी में थी।गर्मी की छुट्टियाँ हुई।उन दिनों रात में छत पर सोना प्रायः सभी घरों में एक आम बात थी।हमारा घर इंदौर में था।गर्मी की छुट्टीयों में अपने मामा – मौसी के बच्चों के साथ देर रात तक मस्ती करना और तारों को गिनते हुए सो जाना,बस यही विशेष होता था।घर के पीछे से बाहर आने का एक दरवाजा था और वहाँ स्नानगृह भी था,फिर अंदर घर का रास्ता था।सुबह करीब चार बजे मुझे प्यास लगी।मैने मेरी दीदी को उठाया।भैय्या को आवाज़ लगाकर हमने नीचे गली का ताला खुलवाया और दरवाजा लुड़काकर हम पानी पीने लगे।तभी दरवाजे पर कुछ हलचल सुनाई दी।उन दिनों चड्डी-बनियान गिरोह का बहुत हल्ला था।भैय्या ने मुझे चुप रहकर एकदम दरवाज़ा खीचने का इशारा किया।मैने जैसे ही झटके से दरवाज़ा खोला, भैय्या ने देखा एक चड्डी-बनियान पहने चोर भाग रहा है।उसके हाथ में हमारी पीतल की बाल्टी भी थी।मै चिल्लाई चोर! चोर !चोर!भैय्या जो मुझसे चार साल बड़ा था,उसने स्नानघर से कपड़े धोने की पिकनी चोर के पैर पर दे मारी।चोर लंगड़ाता हुआ अपनी चप्पल व बाल्टी छोड़ वहाँ से भाग खड़ा हुआ।चार- पाँच दिनों बाद वही चोर पास के निर्माणाधीन मकान से पानी की मोटर चुराता हुआ पकड़ा गया।हमारे द्वारा शिनाक्त किए जाने पर उसे जेल भी हुई।बचपन की यह वीरता आज भी मुझे रोमांचित कर देती है जब बिना जान की परवाह किए निडर होकर किसी भी विपत्ति का सामना करने हम हरदम तत्पर रहते थे।
धन्यवाद
अनुराधा सुनील पारे
जबलपुर