तूम्हे सड़कों पर इस तरह
बेबस बदहवाश देखकर,
लड़ने को कहता है
आक्रोशित मन ललकार कर।
पर हम इस बेचारगी पर
तुम्हारी,सिर्फ रो सकते हैं,
इसके सिवा हम और कुछ
कर भी तो नहीं सकते हैं।
ऐसा नहीं कि
हमने किया नहीं,
तुम्हारे दर्द को
क्या हमने जिया नहीं।
सिर्फ हम नहीं
दुनिया में बहुत सारे लोग
तुम्हारी बेबसी
के पीछे लड़ते रहे।
तुम्हारी किताबों के लिये
तुम्हारे न्याय के लिए
लाखों लाख लोग
काफिले सजाते रहे।
तुम्हारी इस बेबसी के लिए
हमने शहादतें दी हैं,
लेकिन हम तुम्हारी
तकदीर नहीं बदल पाये।
वो जिनकी दीवारें
तुम चमकाते रहे
जिनके ऊंचे ऊंचे महल
तुम सजाते रहे।
वहां इंसानों की कद्र
कभी नहीं होती,
तुम नहीं जानते क्या
कि मशीनें कभी नहीं रोती।
हां यही मशीनें ही तो
फासीवाद बनाता है,
तुम्हारी लाशों पर खड़े होकर
अपना संसार चलाता है ।
डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ पत्रकार एवं विचारक