क्या हम अभी भी लोकतांत्रिक देश हैं?

***************************************
आजकल ना जाने क्यों अपना वह देश बेगाना सा लगता है, जहां मैंने पिछले पचास साल जिए हैं। इसके इतिहास, भूगोल, पर्यावरण, परंपराओं, सभ्यताओं और विभिन्न संस्कृतियों को जाना और समझा है। पर आज वही अपना देश जैसे पराया सा लगता है। चारों तरफ जैसे आग लगी हुई है। नफरत के शोले भड़क रहे हैं। हर आदमी दूसरे आदमी से डरा हुआ है। सारा समाज किसी रहस्यमयी तिलिस्म की तरह नजर आता है। सच बोलने वाले जैसे गूंगे हो गए हैं। अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले अंधे और बहरे हो गए हैं। आखिर यह कौन सी बयार है। कौन सा जहर है। जो सांसों के साथ समूचे देश के रक्त में प्रवाहित होने लगा है। ऐसा तो नहीं था हमारा देश। हम पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक एक सूत्र में हमेशा बंधे रहे हुए थे। अलग-अलग धर्मों, पूजा पद्धतियों, खान-पान, रहन-सहन, भाषाओं और पहनावे के बावजूद हम लयबद्ध होकर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। हमने ईद और होली में कभी भेद नहीं किया। कभी कबीर और नजीर में फर्क ही नहीं समझा। राम और रहीम सभी तो मेरे थे। हमारा देश एक मजबूत गणतंत्र था। शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के क्षेत्र में हम आगे आगे बढ़ते चले जा रहे थे। नागरिक और समाज, वैचारिक और आर्थिक रूप से समृद्ध होते चले जा रहे थे। समूचा विश्व हमारे देश को अंगड़ाई लेकर आगे बढ़ते हुए कौतुहल से देख रहा था। हर क्षेत्र में सुधार के प्रयास चल रहे थे। क्योंकि सब कुछ बहुत बेहतर नहीं था। बहुत कुछ ऐसा था जो हमारे समाज और इंसानियत पर कलंक था। जो हमें शर्मसार करता था। जो हमें विरासत में मिला था। उसमें सबसे खतरनाक था- जातियों का मकड़जाल और धर्मांधता का नशा। गरीबी और अशिक्षा के चलते सामाजिक कुरीतियां भी हमें विरासत में मिली थी। लेकिन हम उसका डटकर मुकाबला कर रहे थे। हमारे समाज के जागरूक लोग समाज के सजग प्रहरी की भूमिका बखूबी निभा रहे थे। हम अपनी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों पर निगरानी भी कर रहे थे। अपनी आवाज संसद तक प्रतिध्वनित कर देते थे। देश की जनता ने सरकारें बनाई, तो सत्ता के दुरुपयोग पर उन्हें उखाड़ कर फेंक भी दिया। आजादी के बाद संसदीय लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में सत्ता के खिलाफ जन संघर्ष और आंदोलन का गौरवशाली इतिहास हमारी उन्नति का प्रमुख कारक है। बहुत सारी कहानियां है। सरकारों ने जुल्म भी किए,दमन भी किया। गलत दिशा में बढ़ते हुए कदम पीछे भी खींचे। यही हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती थी। हमारे पास चीजों को तय करने का संविधान के रूप में एक पैमाना था। जिसका जिस पर हम ने सत्ताधीशों को अतिक्रमण नहीं करने दिया। शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा और रोजगार हमारे मौलिक अधिकारों में थे। हमें बोलने की आजादी थी। सरकारों के गलत कलापों पर विरोध प्रदर्शनों की इजाजत थी। सिर्फ इजाजत ही नहीं बल्कि जन आंदोलनों की हुंकार से संसद कांप उठती थी। दिल्ली की सत्ता डगमगाने लगती थी। न्यायपालिका और पत्रकारिता जैसे स्तंभ हमारे लोकतंत्र के सजग प्रहरी थे। जो सत्ताधीशों के नहीं बल्कि जन सरोकारों के पक्षधर थे। लेकिन आज जैसे सब कुछ बदल गया है। देश सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर विकलांगता का शिकार हो गया है। सरकार तानाशाही रवैया अपना चुकी है। गरीबों की संख्या तेजी से बढ़ते हुए भुखमरी की ओर बढ़ रही है। शिक्षा अपनी दुर्दशा पर चीत्कार कर रही है। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों को नफरत के अखाड़ों में तब्दील कर दिया गया है। अब वहां विद्यार्थियों की टोलियां नहीं, सुरक्षाकर्मियों की टुकड़िया नजर आती है। संविधान का कोई मतलब बचा नहीं है। मीडिया तानाशाह के चारणगीत गाने में और न्यायपालिका उसकी चरण वंदना में लगी है। लगभग सभी संस्थाएं तानाशाह के हाथ की कठपुतली बन चुकी हैं। पुलिस अपने साम्राज्यवादी स्वरूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। हमारे मौलिक अधिकारों को खत्म कर दिया गया है। बोलने की आजादी छीन ली गई है। गली कूचों, गांव मोहल्लों में नफरत की बारूद सहेज कर रख दी गई है। यह बारूद हमारे मस्तिष्क में भरी है। हमारे खून में बह रही है। जो कभी भी करोड़ों लोगों के जनसंहार का बायस बन सकती है। यह सब मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं। यह हो चुका है। और हो रहा है। संसद का सत्र शुरू होने से पहले जो नियम बनाए जा रहे हैं, जो शब्दाडंबर जारी किया गया है। और परिसर में विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है, यह अभिव्यक्ति आजादी छीनने का ही काम है। पहले जनता की अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गई, और अब जनप्रतिनिधियों की भी जीभ काट देने का फरमान सुनाया गया है। देश के राष्ट्रीय चिह्न के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ से यह संकेत दिया गया है कि हम संविधान की कोई परवाह नहीं करते। यह सब कुछ हो रहा है। अदालतें तानाशाह के लिखे हुए फरमान सुना रही हैं। और मीडिया उन्हें सही साबित करने पर तुली हुई है। किसी भी संस्था से कोई उम्मीद करना बेमानी है। आवाम को अपनी आजादी, अपने संविधान और अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए स्वयं ही आगे बढ़ना होगा। अगर न्यायपालिका से उम्मीद होती, तो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़ने वाले हमारे तमाम सजग प्रहरी जेल की चारदीवारी के अंदर कैद नहीं होते। क्या अदालत नहीं जानती कि हिमांशु कुमार कौन हैं ? तीस्ता सीतलवाड़ कौन हैं ?? क्या वे गौतम नवलखा,आनंद तेल तुंबडे को नहीं जानते? सुधा भारद्वाज, स्टेन स्वामी को भी नहीं जानते? अदालतें इन सब की लड़ाइयों के सच से अनभिज्ञ तो हो नहीं सकती। हो सकता है न जानते हो, तो मुकदमें सुनने से पहले उनके बारे में सच तो जान ही गये होंगे,तब तो न्याय करना चाहिए था। लेकिन वह ऐसा क्यों करेंगे? उन्हें तानाशाह का इशारा चाहिए और तानाशाह अपने शत्रु को पहचानने में कभी गलती नहीं कर सकता।

डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Hot Topics

थाना अलीगंज के थाना प्रभारी राम रतन सिंह वर्मा ने चौकीदारों को कंबल वितरण किया

अवधेश सिंह मंडल प्रभारी बरेली अलीगंज -----थाना अलीगंज के थाना प्रभारी राम रतन सिंह वर्मा ने ठंड अधिक पढ़ने से थाने में चौकीदारों को गर्म...

रोडवेज कार्यशालाओं का निजीकरण और दग्गामार खिलाफ अवध डिपो में जोरदार धरना प्रदर्शन

रोडवेज कार्यशालाओं का निजीकरण और दग्गामार खिलाफ अवध डिपो में जोरदार धरना प्रदर्शन रोडवेज कर्मचारी संयुक्त मोर्चा के सभी पदाधिकारी मौके पर रहे मौजूद तबरेज़...

Related Articles

थाना अलीगंज के थाना प्रभारी राम रतन सिंह वर्मा ने चौकीदारों को कंबल वितरण किया

अवधेश सिंह मंडल प्रभारी बरेली अलीगंज -----थाना अलीगंज के थाना प्रभारी राम रतन सिंह वर्मा ने ठंड अधिक पढ़ने से थाने में चौकीदारों को गर्म...

रोडवेज कार्यशालाओं का निजीकरण और दग्गामार खिलाफ अवध डिपो में जोरदार धरना प्रदर्शन

रोडवेज कार्यशालाओं का निजीकरण और दग्गामार खिलाफ अवध डिपो में जोरदार धरना प्रदर्शन रोडवेज कर्मचारी संयुक्त मोर्चा के सभी पदाधिकारी मौके पर रहे मौजूद तबरेज़...