आजादी का अमृत काल है
हर तरफ हंगामा है बवाल है,
तीन रंगों से रंगा हुआ
सारा परिवेश है,
राष्ट्रध्वज हमारा गौरव,
हमारा अभिमान, हमारा देश है।
मदहोश है समूचा जनमानस
महोत्सव का हर्ष और उल्लास है,
तिरंगा मेरी जान है फिर भी
यह सब देख मेरा मन उदास है।
क्योंकि हमारी नादानी पर
तानाशाह हंस रहा है,
वह जहरीले भुजंग की तरह
हर पल हमें डस रहा है ।
अपने भीतर का सारा जहर
समाज में भर रहा है,
और आदमी इससे बेखबर
उसके चालों में फंस रहा है।
यह ध्वज तो प्रतीक है
हमारी आजादी का,
और तानाशाह तो
दुश्मन होता है आजादी का।
हमारी आजादी छीनी जा रही है
और आम जनता महोत्सव मना रही है।
यही तानाशाह की जीत है
उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान है,
आमजन जश्न में डूबा है
बावजूद इसके कि जिंदगी हल्कान है।
तानाशाह जानता है कि
तुम्हें आजादी का मतलब नहीं मालूम,
तुम्हें बनाया जा सकता है गुलाम
तुम हो ही इतने भोले और मासूम।
वह जानता है कि जिस दिन
तुम आजादी का मतलब समझ जाओगे ,
उखाड़ फेंकोगे तानाशाह का सिंहासन
नई व्यवस्था नया निजाम बनाओगे।
इसीलिए तुम्हें भरमाये रहने का
स्वांग वह रचता रहता है,
कभी थाली ताली का शगूफा
कभी महोत्सव मनवाता रहता है।
डा राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक।