2023 के लिए जुमला तैयार: छत्तीसगढ़ जीत के लिए अमित शाह ने फेंका पांसा,कहा सरकार बदल को नक्सलवाद खत्म हो जाएगा,भूले देश के दूसरे सबसे बड़े नक्सल हत्त्याकाण्ड झीरम घाटी हत्त्या काण्ड? जो हुआ था भाजपा शासन काल मे।
“भूपेश राज” में अंतिम सांसें गिन रहा नक्सलवाद,सरकारी दावा- साढ़े तीन साल में चार गुना कम हुईं नक्सली घटनाएं।
पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन कार्यकाल की फर्जी मुठभेड़ों की न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट्स के हवाले कांग्रेस ने साधा था भाजपा पर निशाना।
प्रकाश कुमार यादव।
रायपुर(अमर स्तम्भ) : गृहमंत्री अमित शाह रायपुर पहुंच, उन्होंने नवा रायपुर में NIA की नई बिल्डिंग का उद्घाटन किया,इसके बाद वो भाजपा की तरफ से मोदी@20 किताब पर परिचर्चा में शामिल हुए इस दौरान राजनीतिक गुगली भी फेंकी,उन्होंने वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के लिए प्रदेश की सरकार बदलकर बीजेपी को कमान देने का आवाहन किया,उन्होंने कहा सरकार बदल को नक्सलवाद खत्म हो जाएगा।गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि वामपंथी उग्रवाद की कसकर धज्जियां उड़ाने का काम पीएम मोदी ने किया है।वामपंथी उग्रवाद की वजह से मौतों में 66 फीसदी की कमी हुई है।छत्तीसगढ़ में सरकार बदल लो, यहां से भी वामपंथी उग्रवाद चुटकी में खत्म हो जाएगी।हमारी सरकार ने 2542 नये टावर प्रदेश के वामपंथ प्रभावित क्षेत्रों में और लगने है अमित शाह ने शायद देश के दूसरे सबसे बड़े नक्सल हत्त्याकाण्ड झीरम घाटी हत्त्या काण्ड को भूला दिया हैं जो कि भाजपा नीत रमन सरकार के समय 25 मई 2013 को हुआ था जिसमे कांग्रेस के सीर्ष निताओ की बेहरमी से नक्सलियों द्वारा हत्त्या कर दी गई थीं इतना ही भाजपा की सरकार के समय लगातर फर्जी मुठभेड़ भी होते रही और गरीब आदिवासियों को मौत के घांट उतारा गया ए हम नही रिपोर्ट कहती हैं।अमित शाह ने यहां भी कहा कि छत्तीसगढ़ के विकास और नक्सलवाद पर नकेल कसने में रमन सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी जो इन्होंने ने पता नही कौन से सरकारी आंकड़ों के आधार पर कहा यहा वही जान सकते हैं?उन्होंने यहां भी कहा कि देश में किसी भी कोने में आप पीएम नरेंद्र मोदी के बारे में पूछेंगे तो वो जरूर बताएंगे,सब अलग-अलग रूप में उन्हें देखते हैं।पीएम मोदी ने हमेशा अपने बजाय दूसरे के बारे में सोचा,देश को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचाने के बारे में सोचा हैं।
“भूपेश राज” में अंतिम सांसें गिन रहा नक्सलवाद,सरकारी दावा- साढ़े तीन साल में चार गुना कम हुईं नक्सली घटनाएं।
वर्ष 2008 से लेकर 2018 तक राज्य में नक्सलियों द्वारा हर साल 500 से लेकर 600 हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता था, जो कि बीते साढ़े तीन सालों में घटकर औसतन रूप से 250 तक सिमट गया है।देश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित राज्यों में शुमार छत्तीसगढ़ में बीते साढ़े तीन सालों से राज्य में नक्सली घटनाओं की संख्या में काफी कमी आई है। राज्य पुलिस मुख्यालय से मिली जानकारी के अऩुसार वर्ष 2008 से लेकर 2018 तक राज्य में नक्सलियों द्वारा हर साल 500 से लेकर 600 हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता था, जो कि बीते साढ़े तीन सालों में घटकर औसतन रूप से 250 तक सिमट गया है। वर्ष 2022 में अब तक मात्र 134 नक्सल घटनाएं हुई हैं, जो कि 2018 से पूर्व घटित घटनाओं से लगभग चार गुना कम है।राज्य में 2018 से पूर्व नक्सली मुठभेड़ के मामले प्रतिवर्ष 200 के तकरीबन हुआ करते थे, जो अब घटकर दहाई के आंकड़े तक सिमट गए हैं। वर्ष 2021 में राज्य में मुठभेड़ के मात्र 81 तथा वर्ष 2022 में अब तक 41 मामले हुए हैं। नक्सलियों के आत्मसमर्पण के मामलों में भी तेजी आई है। बीते साढ़े तीन सालों में 1589 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। यह आंकड़ा 10 सालों में समर्पित कुल नक्सलियों की संख्या के एक तिहाई से अधिक है।
नक्सल आतंक से मुक्त हुए 589 गांव।
सरकारी दावे के मुताबिक राज्य सरकार की जनहितैषी नीतियों और विकास कार्यों के चलते बस्तर संभाग के 589 गांवों के पौने छह लाख ग्रामीण, नक्सलियों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं, जिसमें सर्वाधिक 121 गांव सुकमा जिले के हैं। दंतेवाड़ा जिले 118 गांव, बीजापुर जिले के 115 गांव, बस्तर के 63 गांव, कांकेर के 92 गांव, नारायणपुर के 48 गांव, कोण्डागांव के 32 गांव नक्सल प्रभाव से मुक्त हुए हैं।
नक्सलियों ने बंद करा दिए थे स्कूल।
दावे के मुताबिक राज्य में 2018 में नई सरकार के गठन के बाद परस्थितियां तेजी से बदली हैं। इससे पूर्व की स्थिति में नक्सल समस्या प्रदेश के दो तिहाई क्षेत्र में फैल गई थी। बस्तर अंचल सहित धमतरी, गरियाबंद, महासमुंद, राजनांदगांव, कबीरधाम, रायगढ़ जैसे मैदानी इलाकों में भी नक्सलियों की हिंसक गतिविधि तथा आतंक से पूरे प्रदेश में भय का वातावरण निर्मित हो चुका था। ताड़मेटला, झाराघाटी, एर्राबोर, मदनवाड़ा एवं जीरम घाटी जैसी बड़ी-बड़ी नक्सल वारदातों में सुरक्षाबलों के जवानों के अलावा बड़ी संख्या में राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व एवं आम नागरिक मारे गए। नक्सलियों के हिंसक वारदात के चलते अनेक स्कूल एवं आश्रम बंद हो गए। इस दौरान सड़क, पुल-पुलियों को भी नक्सलियों ने क्षतिग्रस्त किया।
सरकार के प्रति बढ़ा लोगों का विश्वास।
सरकारी दावा है कि भूपेश सरकार द्वारा नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता का विश्वास हासिल कर विकास कार्यों को गति देने के लिए एक सुरक्षित वातावरण निर्मित करने का गंभीर प्रयास शुरू किया गया, जिसके बेहद सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। बस्तर संभाग अंतर्गत नक्सल विरोधी अभियान के साथ-साथ क्षेत्र की जनता के मंशानुरूप विकास कार्यों को गति प्रदान करने के लिए साढ़े तीन सालों में 43 नवीन सुरक्षा कैम्प एवं थानों की स्थापना की गई। स्वास्थ्य, शिक्षा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, विद्युत सुविधा, बैंक, आंगनबाड़ी केन्द्र एवं अन्य सुविधाएं तेजी से उपलब्ध कराने के कारण लोगों का विश्वास शासन-प्रशासन के प्रति बढ़ा है।
बस्तर में फिर शुरू हुए 257 स्कूल।
नक्सल आतंक के कारण बस्तर संभाग में वर्षों से बंद 363 स्कूलों में से 257 स्कूल छत्तीसगढ़ सरकार के प्रयासों के चलते फिर से बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए शुरू हो गए हैं, जिसमें से 158 स्कूल बीजापुर जिले के, 57 स्कूल सुकमा तथा दो कांकेर जिले के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के हैं। सरकारी दावे के मुताबिक बस्तर संभाग में माओवादी संगठन की गतिविधि अब महज दक्षिण बीजापुर, दक्षिण सुकमा, इन्द्रावती नेशनल पार्क का इलाका, अबूझमाड़ एवं कोयलीबेड़ा क्षेत्र के केवल अंदरूनी हिस्से तक सिमट रह गई है।
देश के दूसरे सबसे बड़े नक्सल हत्याकाण्ड भाजपा नीत रमन सरकार के कार्यकाल में हुआ झीरम घाटी हत्याकांड।
जब भी 25 मई 2013 का दिन जो याद आता हैं अपने साथ एक भीषण खूनी संघर्ष की याद वापस लेकर आता है। देश के सबसे बड़े आंतरिक हमलाें में से एक झीरम हत्या कांड। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में 9 साल पहले हुई इस नक्सल घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया था। 25 मई 2013 की शाम को हुए इस हमले में 32 लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। हमले में जान गंवाने वाले ज्यादातर छत्तीसगढ़ कांग्रेस के शीर्ष नेता थे, जिनकी स्मृतियां ही आज हम सब के बीच बाकी रह गई हैं। यह देश का दूसरा सबसे बड़ा माओवादी हमला था।जो तत्कालीन रमन सरकार के कार्यकाल में हुआ था यह हमला बस्तर जिले के दरभा इलाके के झीरम घाटी में कांग्रेस के परिवर्तन यात्रा पर हुआ था।इस हमले को कांग्रेस ने सुपारी किलिंग करार दिया था। कल पूरे राज्य में इस झीरम घाटी शहादत दिवस मनाने का ऐलान सीएम भूपेश बघेल ने किया है। हम इस घटना की सातवीं बरसी मनाने जा रहे हैं, लेकिन आज भी इस जघन्य हत्याकांड की कई सच्चाईयों से पर्दा नहीं उठ पाया है। इस घटना को अंजाम देने के पीछे आखिर क्या वजह थी, यह आज तक पूरी तरह साफ नहीं हो पाई है। आइए जानते हैं इस भयावह हमले की पूरी कहानी-25 मई 2013, करीब 5 बजे का समय था। भीषण गर्मी के बीच लोग अपने घरों और कार्यालयों में पंखे-कूलर की हवा के नीचे बैठे थे। इसी बीच अचानक टीवी पर एक खबर आई। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के झीरम घाटी में करीब डेढ़ घंटे पहले एक माओवादी हमला हुआ था। यूं तो यहां आज भी रोजाना माओवादी हिंसा होती है, लेकिन यह घटना उन घटनाओं से कहीं अधिक खौफनाक और भीषण थी। प्रारंभिक खबर आने के करीब 15 मिनट बाद अपडेट खबर आई। इस खबर में बताया गया कि माओवादी हमले में बस्तर टाइगर के नाम से मशहूर कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा और नंद कुमार पटेल सहित कई लोग मारे गए हैं। विद्याचरण शुक्ल की हालत गंभीर है। इसके बाद धीरे-धीरे खबर का दायरा बढ़ने लगा। रात करीब 10 बजे जब यह जानकारी आई कि हमले में कुल 32 लोग मारे गए हैं, तो लोगों को इस खबर पर भरोसा कर पाना मुश्किल हो रहा था। एक-एक कर घटना में मारे गए लोगों के नाम सामने आने लगे। इनमें वे नाम थे जो उस वक्त छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के पहली कतार के नेता थे। यह देश के इतिहास का दूसरा सबसे बड़ा नक्सल हमला था। आज इस हमले की छठवीं बरसी मनाई जा रही है। घटना को भले ही 7 साल हो गए, लेकिन इसके जख्म आज भी पूरी तरह ताजा हैं। घटना की जांच लंबे समय तक अटकी रही और फिर राज्य में कांग्रेस की सरकार के सत्ता में आने के बाद इसकी जांच फाइल दोबारा खोली गई है। इस घटना में कुछ नक्सली लीडर के नाम सामने आए, जिनपर एनआईए ने भी नगद इनाम की घोषणा की है, लेकिन इनमें से कुछ को छोडकर अधिकांश नक्सली पकड़ में नहीं आए हैं।नवंबर 2013 में राज्य में विधानसभा चुनाव होने थे। आपसी अंतरकलह से उबर कर एकजुटता दिखाते हुए कांग्रेस राज्य में परिवर्तन यात्रा निकाल रही थी। इस यात्रा में तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेता शामिल थे। अलग-अलग इलाकों से होते हुए कांग्रेस की यह यात्रा नक्सलियों के गढ़ से गुजर रही थी। 25 मई को प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल, दिग्गज कांग्रेसी विद्याचरण, शुक्ल, बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा और बहुत सारे नेताओं के साथ यात्रा पर थे।सुकमा जिले में एक सभा के बाद सभी नेता सुरक्षा दस्ते के साथ काफिला लेकर अगले पड़ाव के लिए निकले थे। काफिले में सबसे आगे नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल और कवासी लखमा (वर्तमान में राज्य में आबकारी मंत्री) सुरक्षा गार्ड्स के साथ आगे बढ़ रहे थे। पीछे की गाड़ी में मलकीत सिंह गैदू और बस्तर टाइगर महेन्द्र कर्मा सहित कुछ अन्य नेता सवार थे। इस गाड़ी के पीछे बस्तर के तत्कालीन कांग्रेस प्रभारी उदय मुदलियार कुछ अन्य नेताओं के साथ चल रहे थे।इस काफिले में सबसे पीछे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल एनएसयूआई के दो नेताओं देवेन्द्र यादव (अब भिलाई से विधायक) व निखिल कुमार के साथ थे। इस पूरे काफिले में करीब 50 लोग शामिल थे। दोपहर 3 बजकर 50 मिनट पर यह काफिला घने जंगलों से घिरी झीरम घाटी पर पहुंचा। अचानक दोनों से ओर से बंदूक से चली गोलियों की आवाज गूंजने लगी। काफिले में सबसे आगे चल रही गाड़ी को नक्सलियों ने पहला निशाना बनाया।इस घटना में पीसीसी के वर्तमान अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश की मौके पर ही मौत हो गई। इसके बाद लगातार गोलियों की आवाज झीरम घाटी में गूंजने लगी। करीब एक घंटे तक गोलियां बरसती रहीं। मौत का तांडव जारी था। एक के बाद एक काफिले की गाड़ियां इस गोलीबारी की जद में आती रहीं। घाटी के दोनों ओर ऊंची पहाड़ियों में चढ़कर सैकड़ों नक्सली अंधाधुंध गोलियां बरसा रहे थे। करीब 1 घंटे बाद गोलीबारी बंद हो गई। अब तक मीडिया के जरिये यह खबर पूरे देश में फैल चुकी थी। सुरक्षा बल मौके पर पहुंचे तो दूर-दूर तक सिर्फ लाशें बिखरी पड़ी थीं।एक ओर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विद्याचरण घायल अवस्था में पड़े थे। महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, दिनेश पटेल, उदय मुदलियार सहित कई बड़े नेता हमले में मारे जा चुके थे। टीवी और न्यूज पोर्टल पर उस भयावह मंजर की तस्वीरें अब नजर आने लगी थीं। रात बजे तक पूरे राज्य में शोक की लहर दौड़ पड़ी। घटना की पूरी कहानी अब स्पष्ट हो चुकी थी। किसी ने अंदाजा भी नहीं लगाया था कि छत्तीसगढ़ में माओवादी इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे सकते हैं, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई थी।घायल विद्याचरण कोमा में रहने के बाद करीब 2 माह बाद इस दुनिया से चले गए। घटना में कई नेताओं के साथ ही कुल 32 लोग मारे गए थे। इस रक्त रंजिश घटना को आज 7 साल पूरे हो चुके हैं। मामले की जांच आज भी चल रही है, लेकिन अब तक पूरे षणयंत्र का खुलासा नहीं हो पाया है। इस घटनाक्रम के अंदर की कहानी आज भी अनसुलझी ही है।
*झीरम घाटी हत्त्या काण्ड की जांच को लेकर केंद्र की मोदी और छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार होती हैं अक्सर आमने-सामने*
सुकमा के झीरम घाटी में माओवादियों के हमले में 27 कांग्रेस नेताओं की मौत हो गई थी। इस मामले में कुछ बिंदुओं को लेकर केंद्र और छत्तीसगढ़ की सरकार में विवाद बढ़ गया है। पहले था कि इस केस का जांच एनआईए करेगी लेकिन इस केस को राज्य सरकार अपने हाथ में ले रही है।26 मई इसके पीछे की राजनीति साजिश की जांच के लिए दर्ज केस को हटाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ सरकार को एक पत्र लिखा था। केंद्र सरकार के स्वत: संज्ञान के इस मामले में एक धमकी के रूप में देखा जा रहा था।एनआईए इस मामले की जांच 2013 से कर रही है। इस मामले में 39 लोगों को आरोपी बनाया गया है और उनके खिलाफ 2 चार्जशीट दाखिए हुए हैं। तत्कालीन रमन सिंह की सरकार में यह हमला हुआ था और माओवादियों ने कांग्रेस के पूरे राज्य नेतृत्व का सफाया कर दिया था। केंद्र में उस वक्त यूपीए की सरकार थी और मामले की जांच एनआईए को सौंप दिया गया था।एसआईटी जांच के दिए थे आदेश
वहीं, दिसंबर 2018 में सत्ता में आने के बाद सीएम भूपेश बघेल ने इस मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने की घोषणा की थी। उसके बाद, उन्होंने पहले एनआईए से मामले वापस लेने की कोशिश की, फिर आगे बढ़े और एक नई एफआईआर दर्ज की। लेकिन एनआईए तब से केस को रिजेक्ट करने के अनुरोधों को बार-बार खारिज कर रहा था। कांग्रेस सरकार का कहना है कि एनआईए ने इस मामले की ठीक से जांच नहीं की है और कई राजनीतिक एंगल को छोड़ दिए हैं। एनआईए ने NIA कोर्ट में नए एफआईआर को चुनौती दी थी और राज्य ने एक जुलाई को इस पर जवाब दिया था।
शुरू से ही लग रहे हैं राजनीतिक साजिश के आरोप।
दरअसल, 2013 में माओवादियों के हमले में प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व का सफाया हो गया था। उसके बाद से ही राजनीतिक साजिश के आरोप लग रहे हैं। हालांकि, एनआईए ने किसी भी राजनीतिक साजिश से इनकार किया था। एक नई एफआईआर के साथ, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने इस केस को फिर से जीवित किया है। केंद्र का मानना है कि यह केस एनआईए के मामले को खत्म कर देगा।
वहीं, केंद्र ने राज्य को याद दिलाया था कि एनआईए अधिनियम के तहत, एजेंसी राज्य सरकार द्वारा किसी भी कानून के तहत पंजीकृत किसी मामले को ले सकती है, यदि वह किसी घटना से संबंधित है तो एनआई पहले से ही जांच कर रही है। हालांकि केंद्र ज्यादातर मामलों में राज्य की सहमति का इंतजार करता है। महाराष्ट्र के एल्गर परिषद मामले में ऐसा नहीं किया था।वहीं, 26 मई को दर्ज केस में छत्तीसगढ़ पुलिस ने संयोगवश उपा या कोई अन्य कानून नहीं लगाया है, जो अनुसूचित अपराधों (एनआईए अधिनियम के तहत सूचीबद्ध) के तहत आता है। एनआईए केवल अनुसूचित अपराधों से संबंधित है। राज्य की पुलिस ने आईपीसी की धारा 302 और 120बी का उल्लेख अपने केस में किया है। छत्तीसगढ़ के गृह सचिव को भेजे गए एक पत्र में, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सुझाव दिया था कि राज्य सरकार एनआईए अधिनियम का उल्लंघन कर रही है। अंडर सेक्रेटरी धर्मेंद्र कुमार ने लिखा था। कि एनआईए एक्ट की धारा 6 (6) विशेष रूप से एनआईए एक्ट की धारा 6 (4) के तहत जांच सौंपे जाने के बाद राज्य सरकार को जांच के लिए आगे बढ़ने से रोकती है। इसके अलावा, एनआईए अधिनियम की धारा 8 एनआईए को अनुसूचित अपराध से जुड़े किसी अन्य अपराध की जांच करने का अधिकार देता है।प्रतिष्ठित अखबार इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक केंद्र सरकार के अलावे एनआईए ने भी 30 मई को छत्तीसगढ़ पुलिस को पत्र लिखा था।अलग से जांच की प्रक्रिया पर सवाल उठाया है। एनआईए ने कहा है कि इस मामले में अदालत में 2 चार्जशीट दाखिल है। साथ ही कहा है कि इस मामले अलग से जांच से अभियुक्तों या विषयों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन भी होगा। गौरतलब है कि इस साल जनवरी में छत्तीसगढ़ सरकार ने संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में एनआईए अधिनियम की वैधता को चुनौती दी थी।
सूत्रों के अनुसार छत्तीसगढ़ सरकार ने इस घटना के बारे में मृतक के कुछ रिश्तेदारों की शिकायत पर एक केस और दर्ज किया है। मंत्री रवींद्र चौबे ने इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा था कि कथित नक्सली हमले में, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की एक पूरी पीढ़ी की हत्या कर दी गई थी। झीरम हत्याकांड की कभी ठीक से जांच नहीं की गई, कौन किसकी रक्षा करना चाहता है।वहीं, बस्तर के आईजी ने कहा था कि मामला न्यायलय में है, हम इस पर ज्यादा कुछ नहीं कह सकते हैं। लेकिन एनआईए की जांच ज्यादा उजागर नहीं कर सकी, और हम इस घटना की अलग से जांच करना चाहते थे। जांच समानांतर है और एनआई की जांच को प्रभावित नहीं करेगी।गौरतलब है कि 25 मई 2013 को झीरम घाटी हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीसी शुक्ला, महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल सहित 29 लोगों की मौत हो गई थी। एनआईए ने इस मामले में 88 आरोपियों की सूची बनाई थी, जिनमें से 11 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तार लोगों में ज्यादातर नक्सली नेता हैं, जबकि कई महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में मुठभेड़ों में मारे गए। 2016 में एक मास्टरमाइंड ने आत्मसमर्पण किया। एनआईए की चार्जशीट में 39 लोगों के नाम हैं, जिनमें 2 मृत और 26 फरार हैं।
तत्कालीन क्रूर और अत्याचारी रमन सरकार पर न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट्स के हवाले कांग्रेस ने साधा था भाजपा पर निशाना।
छत्तीसगढ़ विधानसभा का बजट सत्र दौरान प्रदेश की चर्चित नक्सल घटनाओ के सच को सामने लाने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण साबित होता दिख रहा था। जंहा मदनवाड़ा नक्सल हमला, ताड़मेटला कांड ,एसड़मेटा नक्सल मुठभेड़ की सच्चाई न्यायिक जांच आयोगों की रिपोर्ट के ज़रिए सामने आ रही थी। यह सभी जांचे भूपेश बघेल सरकार के कार्यकाल में हुई हैं,लिहाजा कांग्रेस का इसमें रूचि लेना स्वाभाविक ही था। छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के संचार विभाग के अध्यक्ष सुशील आनंद शुक्ला ने कहा था कि विभिन्न मामलों में बनी न्यायायिक जांच आयोग की रिपोर्टों से स्पष्ट हो रहा हैं कि रमन सरकार के दौरान पन्द्रह सालों में छत्तीसगढ़ में निर्दोषों का अनेको बार क्रूर नरसंहार किया गया। विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने तत्कालीन रमन सरकार पर जो-जो आरोप लगाए थे, एक-एक करके वे सभी प्रमाणित होते जा रहे हैं। तथ्यों से प्रमाणित है कि वादाखिलाफी और प्रशासनिक आतंकवाद रमन सरकार का मूल चरित्र था।
सुशील आनंद शुक्ला ने कहा था कि मदनवाड़ा, सारकेगुड़ा, एडसमेटा, पेद्दागेलुर जैसे फर्जी मुठभेड़, ताड़मेटला में सैकड़ों आदिवासियों के घर जलाने की घटना, सोनकु और बिजलु जैसे मिडिल स्कूल के बच्चों को मारकर नक्सली बता देना, मीना खलखो और मडकम हिडमे जैसी जघन्य बलात्कार और हत्या के मामले पर विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने पूरी ताकत से उठाया, और अब जब एक एक करके जांच कमिटीयों और न्यायिक आयोग की जांच रिपोर्ट सामने आ रही है तो वे सारे आरोप जो तत्कालीन रमन सरकार पर कांग्रेस ने लगाए थे, लगातार प्रमाणित हो रहे हैं।प्रदेश कांग्रेस के संचार प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला ने यहा भी कहा था कि रमन सरकार के दौरान बस्तर के 644 गांव के लगभग 3 लाख से अधिक आदिवासियों को अपना घर और अपना गांव छोड़कर पलायन करने मजबूर किया गया था। जल, जंगल, जमीन के अधिकारों से बेदखल किया गया। बिना उद्योग लगाए ही लोहाडिगुडा में 4200 एकड़ जमीनें छीनी गई थी,जो भूपेश सरकार ने वापस किए, नक्सलवाद का डर दिखाकर हजारों स्कूल बंद कर दिए गए थे जो वर्तमान सरकार ने पुनः शुरू किया, जगरगुंडा बासागुड़ा राजमार्ग दशकों से बंद था जिसे भूपेश सरकार ने शुरू किया। विकास, विश्वास और सुरक्षा से स्थानी जनता का विश्वास जीता जा रहा है। सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक तीनों क्षेत्रों में बस्तर के स्थानीय जनता की सहभागिता सुनिश्चित हुई है। एडसमेटा मुठभेड़ की न्यायिक जांच रिपोर्ट में यह स्पष्ट हो गया है कि मारे गए तीन नबालिकों सहित सभी नौ लोग स्थानीय निर्दोष आदिवासी थे।सुशील आनंद शुक्ला ने कहा कि मदन वाड़ा की रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि घटना में जिस अधिकारी की लापरवाही से एसपी सहित जवानों की शहादत हुई उस अधिकारी मुकेश गुप्ता को रमन सरकार ने सिर पर बैठा रखा था। तत्कालीन रमन सरकार के दौरान बस्तर में दर्जनों बार निर्दोष आदिवासियों ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार दिया गया था। इन फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए ग्रामीणों को भाजपा ने उस समय नक्सली साबित करने पूरी ताकत लगा दिया था। न्यायायिक आयोगों की रिपोर्ट के बाद मृतकों को नक्सली बताने वाले भाजपा नेताओं को छत्तीसगढ़ की जनता से माफी मांगनी चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह में नैतिकता बची हो तो पन्द्रह साल तक प्रदेश में क्रूर और अत्याचारी सरकार चलाने के लिए प्रदेश की जनता से माफी मांगे।
फर्जी था 2013 का छत्तीसगढ़ एनकाउंटर,जिसकी जांच रिपोर्ट भी हुई सार्वजनिक।
बताते चले कि बीजापुर एनकाउंटर मामले में न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट आई रिपोर्ट में उस मुठभेड़ को फर्जी बताया गया है। सीएम भूपेश बघेल ने विधानसभा में आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक की थी इसमें कहा गया है कि मारे गए लोगों को नक्सली संगठन से कोई नाता नहीं है।छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले स्थित एडेसमेट्टा गांव इसमें आठ आदिवासी मारे गए थे। इस मामले में न्यायिक आयोग की रिपोर्ट आ गई इसमें मुठभेड़ को फर्जी करार दिया गया है। साथ ही कहा गया है कि स्थानीय त्योहार मनाने वाले आदिवासियों पर दहशत में गोलियां चलाई होंगी। सीएम भूपेश बघेल ने न्यायमूर्ति वीके अग्रवाल आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में पेश की थी। पहली बार विधानसभा में इस रिपोर्ट को सार्वजनिक की गई है।
दरअसल, यह घटना 17-18 मई 2013 की दरमियानी रात की है। बीजापुर जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी दूर और रायपुर से 440 किमी दक्षिण में जंगल की बस्ती एडेसमेट्टा में हुई थी। स्थानीय लोगों का एक समूह बीज पांडम आदिवासी उत्सव मनाने के लिए इकट्ठा हुआ था। इसे देख करीब एक हजार सुरक्षाकर्मियों ने गोलीबारी शुरू कर दी।
इस दौरान सुरक्षा बलों ने दावा किया था कि माओवादी ठिकाने पर छापेमारी के दौरान मुठभेड़ हो गई। इस मुठभेड़ में आठ नक्सलियों को मार गिराया गया है। सुरक्षा बलों ने कहा था कि माओवादियों की गोलीबारी के बाद सुरक्षाकर्मियों ने जवाबी कार्रवाई की। वहीं, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षा बलों ने दहशत में गोलियां चलाई होंगी और बेहतर फील्ड इंटेलिजेंस होने पर मौत को टाला जा सकता था।आयोग ने यह भी नोट किया हैं कि कोबरा कॉन्स्टेबल देव प्रकाश को माओवादियों की गोली नहीं लगी थी। उन्हें साथियों ने ही मारा था। आयोग ने मौके से बरामद हथियारों की जब्ती पर भी सवाल उठाया,साथ ही कहा गया है कि बरामद हथियारों को फोरेंसिक लैब में नहीं भेजा गया था।
तत्कालीन रमन सरकार के समय 2012 सरकेगुडा ‘फर्जी’ मुठभेड़ 17 ग्रामीणों की हत्या।
छत्तीसगढ़ सरकार 2012 में बस्तर क्षेत्र के बीजापुर जिले के सरकेगुडा में एक फर्जी मुठभेड़ में 17 ग्रामीणों की मौत के लिए कथित रूप से जिम्मेदार सुरक्षा कर्मियों और अन्य अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए तैयार है।मुठभेड़ की जांच के लिए गठित एक सदस्यीय न्यायमूर्ति वीके अग्रवाल आयोग को पुलिस के इस कथन का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला कि 17 व्यक्ति माओवादी थे और सीआरपीएफ और अन्य सशस्त्र कर्मियों की टीम ने जवाबी गोलीबारी में उन्हें मार दिया था।
पूर्व की भाजपा नीत रमन सरकार में नक्सलवाद से जुड़ी सरकारी योजनाएं एक छलावा बनकर रह गई।
साल 2004 में छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने‘नक्सल पीड़ित पुनर्वास योजना’ शुरू करते हुए नक्सल पीड़ित व्यक्तियों/परिवारों व आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और पुनर्वास की बात कही थी,योजना के पात्र व्यक्तियों का कहना है कि इसकी ज़मीनी हक़ीक़त कागज़ों पर हुए वादों से बिल्कुल अलग है।
परिवार के साथ गौतरिया, उन्हें लगी गोलियों के निशान दिखाते हुए।गौतरिया राम विश्वकर्मा छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित कांकेर जिले के शीलपट गांव में स्वास्थ्य विभाग के अधीन बतौर मलेरियाकर्मी तैनात थे।
22 सितंबर 2009 की रात दो बंदूकधारी नक्सली उनके घर आए और अपने बीमार साथी का इलाज कराने के बहाने उन्हें जंगल में अपने साथियों के पास ले गए।आगे गौतरिया के साथ जो हुआ, उसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी, उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर जंगल में घंटे-दो घंटे घुमाने के बाद नक्सलियों ने एक के बाद एक तीन गोलियां उनके शरीर में उतार दीं।गौतरिया को मरा समझकर नक्सली उन्हें जंगल में ही छोड़कर भाग गए, लेकिन किस्मत से गौतरिया की सांसें चल रही थीं,उस हमले में गौतरिया जिंदा तो बच गए लेकिन नक्सलियों के डर से वे अपना घर, जमीन, खेती-बाड़ी सब छोड़कर अपने गांव से दूर भानुप्रतापपुर में आ बसे।एक कहानी मनोहर की भी है।छत्तीसगढ़ के ही कोंडागांव जिले के 38 वर्षीय मनोहर 1992 में जब महज 8-9 साल के थे, तभी एक नक्सलवादी संगठन से जुड़ गए थे।अगले 22 सालों तक उन्होंने नक्सलियों के साथ काम किया, लेकिन 2014 में उनका नक्सलवाद से मोह भंग हो गया और सरकार की आत्मसमर्पण नीति के तहत पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।नक्सलियों के डर से मनोहर भी अपना गांव छोड़कर अन्य क्षेत्र में जा बसे।ये दोनों ही कहानी एक-दूसरे से जुदा होने के बावजूद भी आपस में कुछ समानताएं रखती हैं।जैसे कि दोनों ही कहानियां उस नक्सलवाद से जुड़ी हैं जिसने छत्तीसगढ़ की धरती को रक्तरंजित कर रखा है।गौतरिया और मनोहर दोनों ही नक्सलवाद से पीड़ित रहे हैं।दोनों ही राज्य सरकार द्वारा 2004 में बनाई गई ‘नक्सल पीड़ित पुनर्वास योजना’ के तहत लाभार्थी की श्रेणी में आते हैं।पर दोनों ही वर्षों से योजना का लाभ पाने से वंचित हैं।बता दें कि वर्ष 2004 में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार नक्सल पीड़ित व्यक्तियों, परिवारों तथा आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने, उन्हें पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराने एवं उनका पुनर्वास करने के उद्देश्य से एक योजना लेकर आई थी।इस 29 बिंदुयीय योजना में आत्मसमर्पित नक्सलियों और नक्सल पीड़ितों के पुनर्वास हेतु रोजगार, शासकीय नौकरी, मुआवजा, राहत राशि, अनुग्रह राशि, आवास, कृषि भूमि, बच्चों की शिक्षा-छात्रावास, शैक्षणिक छात्रवृति, स्वरोजगार के लिए ऋण आदि उपलब्ध कराने की भी बात कही गई थी।साथ ही, सुरक्षा की दृष्टि से अगर कोई नक्सल पीड़ित परिवार अपनी ज़मीन शासन को देकर प्रदेश में कहीं और बसता है तो ज़मीन के बदले ज़मीन भी दी जाने की बात दर्ज है।इस योजना में 2011 और 2013 में संशोधन करके राहत राशि, मुआवजा राशि में समय-समय पर बढ़ोतरी भी की गई, साथ ही, न्यूनतम दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने और बस के यात्री किराए में 50 प्रतिशत की छूट के प्रावधान भी जोड़े गए।
राज्य में रहने वाले नक्सल पीड़ितों के अधिकतम दो बच्चों को ग्रेजुएशन तक निशुल्क शिक्षा और छात्रावास उपलब्ध कराने का प्रावधान भी जोड़ा गया।कागज़ों पर तो यह योजना बेहद कल्याणकारी नज़र आती है लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही बताती है।गौतरिया जैसे नक्सल पीड़ित या मनोहर जैसे आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व नक्सली इस योजना का लाभ लेने के लिए वर्षों से दर-दर की ठोकर खा रहे हैं।राजनांदगांव जिले के धीरेंद्र साहू भी नक्सल पीड़ित हैं और पिछले डेढ़ दशक से योजना का लाभ पाने के लिए सड़क से लेकर सरकारी कार्यालयों और अदालत तक में उन्होंने अपने हक की लड़ाई लड़ी है। अदालती फैसला भी उनके पक्ष में आया है।अपने इस संघर्ष के दौरान धीरेंद्र को पता लगा कि उन जैसे हजारों लोग योजना से वंचित हैं तो उन्होंने सबको साथ जोड़ना शुरू किया और नक्सल पीड़ितों का एक अनौपचारिक संगठन खड़ा कर दिया, इसी कड़ी में पिछले दिनों नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने राजधानी रायपुर में जुटकर दो दिन तक अपनी मांगों के समर्थन में सरकार के खिलाफ धरना भी दिया था।धीरेंद्र बताते हैं, ‘राज्य में करीब 20 से 30 हजार ऐसे लोग हैं जो नक्सल पीड़ित या आत्मसमर्पित नक्सली हैं लेकिन उन्हें पुनर्वास योजना का लाभ पूरी तरह नहीं मिल रहा है।
धीरेंद्र की बात करें तो गौतरिया या मनोहर की तरह उनका नक्सलवाद से सीधा सामना तो नहीं हुआ था, लेकिन उनके पिता बबला साहू को 2006 में नक्सलियों ने घर से बाहर खींचकर गांव के मुख्य चौराहे पर खड़ा करके सिर में गोली मार दी थी. उनकी मौके पर ही मौत हो गई थी।उल्लेखनीय है कि बबला साहू भाजपा नेता थे और उस समय राज्य में भाजपा की ही सरकार थी, जो अगले 12 सालों तक रही। इसके बावजूद भी उनके अनाथ बेटे को अपने पुनर्वास के लिए दर-दर भटकना पड़ा और अंत में अदालत जाना पड़ा।धीरेंद्र बताते हैं, ‘मेरे पिता मुख्यमंत्री रमन सिंह के करीबियों में गिने जाते थे,जब उनकी मौत हुई तो मेरी उम्र 14-15 साल थी। नक्सलियों की दहशत के कारण परिवार को गांव छोड़ना पड़ा,उस समय योजना के तहत एक लाख रुपये मुआवजा मिला और मेरे लिए एक अस्थायी नौकरी।धीरेंद्र के मुताबिक,इसके अलावा जो अन्य लाभ थे, वो उन्हें नहीं मिले,2008 में कलेक्टर ने योजना के तहत उनके लिए आवास का आवंटन किया था लेकिन आज 13 सालों बाद भी उन्हें आवास नहीं मिल सका है।वे बताते हैं।‘2008 में तत्कालीन कलेक्टर ने आवास का आवंटन किया लेकिन उसके बाद आए कलेक्टर उस आदेश को ही फर्जी बताकर कहने लगे कि नक्सल पीड़ितों को आवास देने का कोई प्रावधान नहीं है।दस साल सरकार और सरकारी कार्यालयों के धक्के खाने के बाद मैंने अदालत का रुख किया और अदालत ने मेरे पक्ष में फैसला देते हुए आवास आवंटित करने का आदेश दिया।धीरेंद्र को जल्द ही मकान का आवंटन होने वाला है वे सवाल उठाते हैं, ‘कलेक्टर की मानें तो योजना के तहत मकान दिए जाने का नियम ही नहीं था,जब नियम नहीं था, तो अब मुझे क्यों मकान दिया जा रहा है? यानी कि योजना को लागू करने में कहीं गड़बड़ तो है। हमें इसी गड़बड़ के खिलाफ लड़ना है।धीरेंद्र ने जब से होश संभाला है, वे बस अपने पुनर्वास के लिए लड़ रहे हैं।यहां सवाल उठता है कि जब मुख्यमंत्री के करीबी रहे नेता का नक्सल पीड़ित परिवार ही पुनर्वास योजना के लाभ से वंचित हो तो आम नक्सल पीड़ितों को योजना का कितना लाभ मिलता होगा?मीडिया ने पुनर्वास योजना का लाभ मिलने के संबंध में अनेक नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों से बात की,तो पता लगा कि सभी को योजना का आंशिक लाभ ही मिला है।
किसी को मुआवजा मिला है तो नौकरी नहीं मिली, जिसे नौकरी मिली है तो वह योजना में दर्ज प्रावधानों के तहत उसकी योग्यता के मुताबिक नहीं मिली।
किसी-किसी को तो कलेक्टर दर पर अस्थायी नौकरी पर रखा है जबकि योजना के तहत उनकी शैक्षणिक योग्यता शासकीय नौकरी पाने लायक है। जिन्हें अस्थायी नौकरी पर रखा है, उन्हें भी कुछ समय बाद निकाल बाहर कर दिया जिसके चलते वे मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं।उनके बच्चों की पढ़ाई बीच में छूट गई है।हालांकि, पढ़ाई के लिए भी योजना में शैक्षणिक छात्रवृति और छात्रावास का जिक्र है लेकिन जिससे भी हमने बात की उसे इनका लाभ नहीं मिला है।नतीजतन, शिक्षा जो मुख्यधारा से जोड़ने की एक अहम कड़ी है, नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों के बच्चे उससे महरूम हैं। पीड़ितों के राशन कार्ड तक नहीं बने हैं जिससे सस्ते राशन का भी लाभ उन्हें नहीं मिल रहा है।बीते दिनों नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने रायपुर में दो दिन तक अपनी मांगों के समर्थन में सरकार के खिलाफ धरना दिया था।
नक्सली हमले के बाद गांव, घर-जमीन छोड़ दर-दर भटक रहे हैं पीड़ित।
इस संबंध में कांकेर जिला की स्नेहलता की कहानी बेहद कष्टदायक रही,उनके पिता की 2004 में नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, पिता के गम में कुछ दिनों बाद मां ने भी दम तोड़ दिया।
इसके कुछ समय बाद नक्सलियों ने उनके भाई को मार दिया जो पुलिस विभाग के गोपनीय सैनिक थे।पिता-भाई की मौत पर उन्हें एक-एक लाख रुपये का मुआवजा मिला।घटना के बाद स्नेहलता अपना गांव, घर और जमीन छोड़कर भानुप्रतापपुर आ बसीं,स्नेहलता तब 23 साल की थीं, जब अचानक ही सिर से माता-पिता व भाई का साया उठ गया, जिस घर में बचपन बीता, वही छूट गया, और किसी नई जगह अपनों के बिना अकेले ही नया जीवन शुरू करना पड़ा,इस दौरान उनके द्वारा महसूस की गई मानसिक वेदना की बस कल्पना की जा सकती है।अनाथ स्नेहलता को तब अकेले ही अपने जीवन को पटरी पर लाना था।योजना के मुताबिक होना तो यह चाहिए था कि सरकार उनके पुनर्वास में मदद करती, लेकिन स्नेहलता के साथ हुआ यह कि उन्हें अगले पांच सालों तक पुनर्वास नीति के तहत नौकरी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा।2009 में शासन से उन्हें दैनिक भत्ते पर चपरासी की नौकरी मिली जो कि 2015 में जाकर स्थायी हुई, लेकिन अपने हक के लिए स्नेहलता का संघर्ष आज भी जारी है।स्नेहलता बताती हैं, ‘मैंने पढ़ाई में हिंदी और संस्कृत में डबल एमए किया है लेकिन नौकरी मुझे चपरासी की दी है जबकि योजना में प्रावधान है कि मेरी शैक्षणिक योग्यता के हिसाब से मुझे बड़े पद पर नियुक्ति मिल सकती है। कई बार पुलिस विभाग, एसपी, कलेक्टर को आवेदन दे चुकी हूं लेकिन कुछ नहीं हो रहा है।वहीं, जिन गौतरिया विश्वकर्मा का शुरुआत में जिक्र किया, वे बताते हैं, ‘उस घटना के बाद मैंने गांव छोड़ दिया था क्योंकि गांव जाता तो नक्सली फिर मारते,अपना घर-ज़मीन, नौकरी सब छोड़कर यहां (भानुप्रतापपुर) 11 सालों से दर-दर भटक रहे हैं। जिस दिन मजदूरी मिल जाती है तो कर लेते हैं।पेट के लिए कुछ तो करना पड़ेगा।खेत-खलिहान छोड़कर आए हैं, लेकिन पुनर्वास के नाम पर अब तक केवल 10,000 रुपये मिले हैं. इसके अलावा अन्य कोई सहायता नहीं मिली है।
अपनी व्यथा सुनाते हुए वे कहते हैं,‘मैंने स्वास्थ्य विभाग में 15 वर्ष मलेरिया वर्कर के तौर पर काम किया था, लेकिन उस घटना ने सब छीन लिया,भानुप्रतापपुर आया तो पुलिस ने तीन-चार साल मुखबिर बनाकर काम कराया। वेतन देते नहीं थे, उनका कहना था कि कुछ काम करके दिखाओगे तो पक्की नौकरी दे देंगे, इस लालच में हम करते गए,बहुत काम करके दिया,एक आत्मसमर्पण कराया, बंदूक पकड़वाई लेकिन न तो मुझे गोपनीय सैनिक में रखा, न एसडीओ और नगर सैनिक में. कुछ नहीं हुआ मेरा सर….’
ऐसा कहते हुए गौतरिया की आवाज भारी हो जाती है और आंखों में आंसू आ जाते हैं।थोड़ा ठहरकर, खुद को संभालते हुए वे रुंधे हुए गले से आगे कहते हैं, ‘47 साल उम्र हो गई है।तीन गोलियां लगी हैं।अब परिवार पालना मुश्किल हो रहा है।शासन से 2009 से नौकरी मांग रहा हूं।अगर मुझे नहीं तो मेरे बच्चे को ही नौकरी दे दो।घास-फूस की छप्परनुमा झोपड़ी में रहने वाले गौतरिया के दो किशोर लड़के हैं। दोनों फिलहाल सरकारी स्कूल में पढ़ रहे हैं लेकिन पुनर्वास योजना में वर्णित प्रावधानों के तहत उन्हें शैक्षणिक छात्रवृति या किसी भी प्रकार की कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती है।इसलिए वे आगे भी पढ़ पाएंगे, इस पर संशय है।
इस तरह तो कोई भी नक्सली आत्मसमर्पण नहीं करेगा’
दूसरी ओर, आत्मसमर्पण करने वाले एक पूर्व नक्सली मनोहर को भी पुनर्वास के नाम पर अब तक केवल 5,000 रुपये ही मिले हैं. इसके अलावा कुछ भी नहीं, पेट पालने के लिए वे भी मजदूरी करते हैं।उनके तीन बच्चे हैं जो स्कूल में पढ़ रहे हैं लेकिन उन्हें भी योजना के तहत छात्रवृत्ति का लाभ नहीं मिल रहा है।
मनोहर बताते हैं, ‘जब मैंने आत्मसमर्पण किया, तब मेरे ऊपर 50-60 हजार रुपये का इनाम था, मैंने दो नक्सलियों का भी आत्मसमर्पण कराया।आत्मसमर्पण के समय खूब वादे किए गए थे।घर मिलेगा,जमीन मिलेगी,नौकरी मिलेगी, पैसा मिलेगा, लेकिन, मिला सिर्फ पांच हजार,नौकरी के लिए थाने से लेकर एसपी तक आवेदन दे-देकर थक गया हूं। टीआई साहब बोले तो एक जमीन पर झोपड़ी डालकर रह रहा हूं।
अगर योजना के प्रावधानों पर नज़र डालें तो मनोहर उनके ऊपर घोषित इनाम की राशि, रोजगार, आवास, कृषि भूमि, बच्चों की शैक्षणिक छात्रवृत्ति पाने के हकदार हैं।कोंडागांव जिले में रजनु ने भी 2009 में अपने एक साथी के साथ आत्मसमर्पण किया था, 30 वर्षीय रजनु बताते हैं कि उनके ऊपर तब एक-डेढ़ लाख रुपये का इनाम था,लेकिन आत्मसमर्पण करते समय उन्हें एक रुपया भी नहीं मिला। बाद में जब वे पुलिस अधिकारियों के पास गए तो उन्हें कहा गया, ‘जो मिलना था, मिल गया, अब कुछ नहीं मिलेगा।रजनु बताते हैं, ‘आत्मसमर्पण कराते वक्त उन्होंने कहा था कि आपके लिए योजना बनी है।आपको ज़मीन मिलेगी, सरकारी नौकरी मिलेगी,यह सुनकर ही तो आत्मसमर्पण किया था लेकिन ज़मीन तो मिली नहीं, उल्टा गांव छोड़कर दूसरे गांव में रह रहे हैं क्योंकि समर्पण करने के बाद अपने गांव जाने पर नक्सली मार देंगे।इसलिए अब मजदूरी कर रहे हैं।रजनु के मुताबिक आत्मसमर्पण के बाद पुलिस ने नौकरी का लालच देकर उनसे भी मुखबिरी कराई थी,उन्होंने हथियार भी पकड़वाए थे, लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। यहां तक कि उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए भी कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही है।रजनु के मुताबिक, ‘कोंडागांव जिले में दो नक्सली दल हुआ करते थे।दोनों दलों के सभी सदस्यों ने आत्मसमर्पण कर दिया था,एक-दो को छोड़ दें तो किसी को योजना के तहत कोई लाभ नहीं मिला,अगर लाभ मिलता तो राज्य में और भी नक्सली आत्मसमर्पण कर सकते हैं लेकिन इस तरह तो कोई नहीं करेगा।क्या पीड़ितों को मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर उनके हाथों में हथियार थमाए जा रहे हैं?
गौरतलब है कि पुनर्वास योजनांतर्गत नक्सल पीड़ित या आत्मसमर्पित नक्सलियों को पुनर्वास हेतु अपना आवेदन जिला पुलिस अधीक्षक (एसपी) को देना होता है।एसपी उसका परीक्षण करके कलेक्टर को भेजता है।फिर कलेक्टर एसपी से जानकारी प्राप्त करके पुनर्वास की कार्रवाई प्रारंभ करते हैं।इसकी समय सीमा अधिकतम 90 दिन है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि दशकों तक पुनर्वास की कार्रवाई अटकी रहती है। पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सली अपने आवेदन स्थानीय थाने के माध्यम से एसपी तक पहुंचाते हैं।इसी दौरान इन लोगों को पुलिस अधिकारियों द्वारा नक्सल विरोधी अभियान से जोड़कर अपने काम निकलवाए जाते हैं।गौतरिया हों, रजनु हों या फिर अजयवती, सभी से पुलिस ने पुनर्वास के नाम पर नौकरी का लालच देकर गोपनीय सैनिक या मुखबिर के तौर पर काम करवाया लेकिन न तो उन्हें नौकरी मिली और न पुनर्वास हुआ।अजयवती (32) का भी अनुभव ऐसा ही रहा।कोंडागांव के लखापुरी गांव में एक आंगनबाड़ी शिक्षिका थीं।वर्ष 2013 की घटना है जब नक्सली उन्हें उनके घर से उठा ले गए,उन्होंने दस दिन अजयवती को अपने साथ रखकर घोर यातनाएं दीं, जिन्हें याद करते ही अजयवती सहम जाती हैं।वे बताती हैं, ‘उन्होंने इस दौरान मुझे इतना पीटा कि मेरे शरीर पर कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां चोट के निशान न हों, एक दिन जब मैं होश खो बैठी तो मुझे मरा समझकर जंगल में फेंक गए।
इस तरह अजयवती की जिंदगी तो बच गई लेकिन जीवन की चुनौतियां बढ़ गईं।जब नक्सलियों को उनके जीवित होने की भनक लगी तो उन्होंने फरमान जारी किया कि अजयवती अगले तीन सालों तक घर के बाहर कदम नहीं रखेंगी।अजयवती की हालत गंभीर थी।उन्हें तत्काल इलाज की जरूरत थी, जो घर के अंदर संभव नहीं था।बाहर जाने पर नक्सलियों की नाफरमानी होती और वे फिर हमला कर देते।तब कुछ गांव वालों की मदद से अजयवती और उनका परिवार अपना गांव, घर-ज़मीन और नौकरी छोड़कर कहीं दूर जा बसे,वहां तीन महीने अजयवती अस्पताल में भर्ती रहीं।इसी दौरान उन्हें अपने परिवार सहित गांव, घर-ज़मीन और नौकरी छोड़ने पड़े,तीन महीने वे अस्पताल में रहीं।नक्सलियों ने उन्हें पुलिस के सामने जुबां खोलने पर जान से मारने की धमकी भरा संदेश भेजा तो दूसरी तरफ पुलिस ने उन पर दबाव बनाया कि वे नक्सलियों के बीच बिताए समय की जानकारी दें।
अजयवती मानो दो पाटों के बीच पिस रही थीं।उस दौर को याद करते हुए वे बताती हैं, ‘पुलिस ने मुझे समझाया कि मैं गांव गई तो नक्सली मार देंगे। इसलिए मुझे गोपनीय सैनिक बनने का प्रस्ताव दिया। मैं नक्सलियों के बीच रही थी इसलिए उनके काम आ सकती थी।उन्होंने मुझसे बहुत काम भी लिया. नौकरी छिन गई थी,मैं सबसे बड़ी थी,अपनी मां और पांच छोटे भाई-बहनों को पालने की जिम्मेदारी थी. इसलिए पुलिस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।सरकार की योजना के दावों के अनुसार आदर्श स्थिति यह होती कि सुनिश्चित किया जाता कि अजयवती फिर से सामान्य जीवन जी सकें।उन्हें वापस मुख्यधारा से जोड़ा जाता।लेकिन, हुआ यह कि एक आम आदिवासी महिला शिक्षिका को अपना हथियार बनाकर नक्सल के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया गया।इसका नतीजा यह हुआ कि गोपनीय सैनिक बनने के साल भर बाद ही नक्सलियों ने उनके छोटे भाई पर भी जानलेवा हमला कर दिया जिसमें किसी तरह वे जान बचाने में कामयाब हो सके।
इससे भी ज्यादा दुखद यह हुआ कि जिस महिला शिक्षिका को पुलिस ने पुनर्वास के नाम पर दबाव बनाकर नक्सल विरोधी लड़ाई में उतार दिया था, और वह भी अपने परिवार को पालने की खातिर गोपनीय सैनिक बनने को राजी हो गई थी, उसे बाद में दूध से मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक दिया गया।अजयवती बताती हैं, ‘मुझे 12,000 के मासिक वेतन पर गोपनीय सैनिक के तौर पर रखा गया,चार साल काम कराने के बाद 2020 में हटा दिया गया, उस दिन से अजयवती 190 रुपये की दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही हैं।
वे कहती हैं, ‘नियमानुसार मुझे गोपनीय सैनिक के बाद आरक्षक की स्थायी नौकरी पर रखते लेकिन उन्होंने तो नौकरी ही छीन ली,छोटे भाई-बहन स्कूल में हैं।उनकी पढ़ाई बंद हो गई है,छात्रवृत्ति उन्हें मिलती नहीं,उनको कैसे पढ़ाऊं?’
नियमानुसार अजयवती को नौकरी-आवास और जमीन समेत अनेक लाभ मिलने थे लेकिन मिला कुछ नहीं, इसलिए सवाल उठता है कि यह कैसा पुनर्वास है जहां नक्सल हमले की शिकार एक 25 साल की पीड़ित शिक्षिका को नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में उतार दिया जाता है और बाद में मजदूरी करके पेट पालने के लिए छोड़ दिया जाता है?सीआरपीएफ और बीएसफ में एडीजी एवं कोबरा बटालियन में आईजी रहे रिटायर्ड पुलिस अधिकारी डॉ एनसी अस्थाना, जो राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लगातार लिखते रहे हैं, बताते हैं, ‘एक बार जो जंगल से बाहर आ गया उसके पास रियल टाइम कोई जानकारी नहीं होती है और न जानकारी का स्रोत होता है,इसलिए साल-दो साल बाद पुलिस वाले उन्हें काम का न पाकर भगा देते हैं।वहीं पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की छत्तीसगढ़ इकाई की सचिव शालिनी गैरा तो पूरी पुनर्वास योजना पर ही सवाल खड़े करती हैं।शालिनी कहती हैं, ‘इस पुनर्वास नीति में नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों को मिलने वाले जो भी लाभ हैं वो इस बात पर निर्भर करते हैं कि वे लोग नक्सल विरोधी अभियान में पुलिस की कितनी सहायता करते हैं! मुखबिर के तौर पर, गोपनीय सैनिक के तौर पर या किसी भी अन्य रूप में।शालिनी आगे कहती हैं, ‘इसका मतलब ये हुआ कि सरकार नहीं चाहती कि पूर्व नक्सली या आदिवासी हथियार छोड़ दें।नक्सली आत्मसमर्पण करके मुख्यधारा में आना चाहते हैं तो उन्हें फिर से एक युद्ध में शामिल कर लिया जाता है. होना तो यह चाहिए कि उन्हें समझाया जाए कि जो नक्सली युद्ध चल रहा है, वह गलत है। आप मुख्यधारा में आकर एक शांतिपूर्ण जिंदगी जीए, लेकिन हो यह रहा है कि सरकार उनसे कहती है कि आप इस युद्ध में नक्सलियों को छोड़कर हमारी तरफ से लड़ें।यह तो पुनर्वास नहीं हुआ।इस संदर्भ में पुनर्वास नीति के बिंदु क्रमांक 5, 16 व 27 का जिक्र जरूरी हो जाता है।
बिंदु क्रमांक 5 में लिखा है, ‘आत्मसमर्पित नक्सली के पुनर्वास में इस बात का परीक्षण किया जाएगा कि उसके द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई में राज्य को कितना योगदान दिया गया है।बिंदु क्रमांक 16 में वर्णित है, ‘यदि आम जनता में से किसी व्यक्ति द्वारा नक्सल विरोधी अभियान में पुलिस को विशेष सहयोग दिया हो या आम जनता की रक्षा व शासकीय/अशासकीय संपत्ति की सुरक्षा के दौरान नक्सलियों से मुकाबला किया हो जिसके चलते उसकी जान को खतरा पैदा हो गया हो, तो उसे पुलिस विभाग के अधीन निम्नतम पदों या होमगार्ड पर योग्यतानुसार नियुक्ति दी जाएगी।वहीं, बिंदु क्रमांक 27 में लिखा है, ‘आत्मसमर्पित नक्सली या नक्सल पीड़ित व्यक्ति के खिलाफ यदि पूर्व में आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध हो तो उनके द्वारा नक्सल उन्मूलन में दिए गये योगदान को ध्यान में रखते हुए आपराधिक प्रकरणों को समाप्त करने पर शासन विचार करेगा।
ये तीनों ही बिंदु आत्मसमर्पित नक्सलियों एवं नक्सल पीड़ितों को नक्सल विरोधी अभियान से जुड़ने को विवश करते हैं ताकि वे अपने ऊपर दर्ज पुलिस प्रकरणों को समाप्त करा सकें एवं पुनर्वास नीति का ज्यादा से ज्यादा लाभ पा सकें।साथ ही ये नियम आम जनता को भी नक्सल विरोधी लड़ाई में उतारने के लिए पुलिस विभाग में नौकरी का लालच देते हैं और आम आदिवासी को नक्सलियों से लड़ाने की नीति को बढ़ावा देते हैं।शालिनी कहती हैं, ‘सलवा जुडूम प्रकरण पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी कोशिशों को खतरनाक ट्रेंड बता चुका है। बावजूद इसके पुनर्वास नीति के तहत वही सब सामने आ रहा है।पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सलवा जुडूम भले ही कागजों पर नहीं है लेकिन व्यवहारिक अर्थों में उसका नाम बदल-बदलकर वैसा ही प्रताड़नाओं का दौर जारी है।हाल ही में दंतेवाड़ा में ‘लोन वर्राटू (घर वापसी)’ नामक एक कार्यक्रम शुरू हुआ है जो सलवा जुडूम जैसा ही है।जहां पुलिस और राज्य सरकार ने आत्मसमर्पित नक्सलियों को बंदूक थमाकर नक्सल विरोधी लड़ाई में उतार दिया है।छत्तीसगढ़ की मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया भी ‘लोन वर्राटू’ का ही उदाहरण देते हुए पुनर्वास नीति की आलोचना करती हैं।वे कहती हैं, ‘ये लोग आत्मसमर्पित नक्सली को ही हथियार थमाकर अपने फोर्स में शामिल कर लेते हैं. यह खतरनाक तो है ही, साथ ही यह नक्सलवाद को लेकर सरकार का कपटपूर्ण रवैया दिखाता है।सरकार को तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल करना था न. इसके लिए उनका निजी और सामाजिक जीवन अच्छा बनाने में मदद करते, फिर चाहे वह मदद शिक्षा से होती या फिर ट्रेनिंग से। बंदूक थामकर वे मुख्यधारा का हिस्सा थोड़ी न बनेंगे।
*पीड़ितों को पता ही नहीं है कि उनके लिए कोई योजना भी है*
नक्सल पीड़ितों के हालात ऐसे हैं कि नक्सलवाद ने उन्हें शारीरिक क्षति तो पहुंचाई ही, मानसिक और आर्थिक रूप से भी तोड़कर रख दिया,नक्सली घटना का शिकार होने से पहले ज्यादातर पीड़ित खुशहाल, संपन्न और सामान्य जीवन जी रहे थे, लेकिन शिकार बनने के बाद उन्हें अपना घर-द्वार, खेती-बाड़ी, नौकरी-धंधा सब छोड़कर कहीं दूर बसना पड़ा और अब दो जून की रोटी का गुजारा करना भी चुनौती है।
वर्षों से पुनर्वास योजना का लाभ मिलने का इंतजार कर रहे नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों के संघर्ष की ढेरों कहानियां हैं।धीरेंद्र बताते हैं, ‘ज्यादातर लोगों को तो पता ही नहीं है कि उनके पुनर्वास के लिए ऐसी कोई योजना भी मौजूद है. जब हमने जिले-जिले जाकर उन्हें समझाया और योजना के बारे में बताया, तब जाकर वे अपना हक मांगने की स्थिति में आए हैं।उनकी बात सही साबित होती दिखती है। अनेकों पीड़ितों से बात करने के बाद निष्कर्ष यही है कि उन्हें पुनर्वास योजना के संबंध में कोई खास जानकारी ही नहीं है और संघर्षों में अपना जीवन काट रहे हैं।धीरेंद्र बताते हैं कि जब इस मामले को अदालत और मीडिया में उछाला गया तब जाकर कुछ समय पहले सरकार की ओर से पीड़ितों को बस यात्रा का पास, राशन कार्ड और छात्रवृत्ति जैसी छोटी-छोटी सुविधाएं सुचारू रूप से मिलने की घोषणा हुई है।
वे कहते हैं, ‘अदालत ने मुझे आवास तो दिला दिया लेकिन मेरी नौकरी अब भी अस्थायी है जबकि मैं शासकीय नौकरी पाने की हर योग्यता पूरी करता हूं, लेकिन अब यह लड़ाई सिर्फ मेरे हक की नहीं है।अब सभी नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों को योजना का लाभ मिलना चाहिए।अगर सरकार जल्द ही ऐसा नहीं करती तो हम अदालत में रिट पिटीशन डालेंगे।
गौरतलब है कि सरकारी नाफरमानी के चलते अब पीड़ित लगातार अदालतों का रुख कर रहे हैं।पिछले दिनों कवर्धा जिले की केकती बाई को भी छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में सरकार के खिलाफ जीत मिली और अदालत ने उनके बेटे को सरकारी नौकरी देने का आदेश सुनाया।वहीं, पीड़ितों की शिकायत है कि पहले मृतक के परिजनों को राज्य सरकार की ओर से पांच लाख और केंद्र सरकार तीन लाख रुपये मुआवजा देती थी लेकिन 2017 में राज्य सरकार ने केंद्र से मिलने वाली राशि को भी राज्य की राशि में समायोजित कर दिया है जिससे कि पीड़ितों को जहां पहले आठ लाख रुपये मिलते थे, अब पांच लाख ही मिल रहे हैं।पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने भी पुर्नवास योजना का मुद्दा उठाते हुए सरकार को घेरा था कि वह नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों की अनदेखी कर रही है।हालांकि, गौर करने वाली बात यह है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार तो दो साल पहले आई है लेकिन नक्सल पीड़ितों को पुनर्वास योजना का लाभ भाजपा सरकार के समय से ही नहीं मिल रहा है।इसलिए धीरेंद्र कहते हैं, ‘मेरे पिता तो भाजपा का हिस्सा थे, रमन सिंह के करीबी थे और उनके गृह जिले राजनांदगांव से थे।लेकिन, फिर भी मुझे 12 सालों तक उनकी सरकार ने दर-दर की ठोकरें खिलाईं।प्रधानमंत्री को हजारों पत्र लिखे लेकिन कभी जवाब नहीं आया,नियम तो कहता था कि मेरी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति सरकार देती, लेकिन छात्रवृत्ति मिली राजीव गांधी फाउंडेशन से।वे आगे कहते हैं, ‘2004 से 2018 तक जितनी भी घटनाएं हुईं तब भाजपा की रमन सरकार ही थी,योजना के लाभ से वंचित ज्यादातर लोग उसी समय के हैं।यदि वे सही काम करते तो हम सड़क पर नहीं उतरते,कांग्रेस की नई सरकार से उम्मीद थी लेकिन वह भी भाजपा के नक्शेकदम पर चल रही है। हकीकत यही है कि भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने ही हमारे हितों की अनदेखी की है।
धीरेंद्र के यह भी आरोप हैं कि नक्सल पीड़ितों को तो योजना का लाभ नहीं मिल रहा, उनके बजाय पुलिस विभाग अपने चहेतों को नक्सल पीड़ित बताकर लाभ दिला रहा है।वे सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘हमसे कहा जाता है कि नक्सल पीड़ितों के लिए शासकीय नौकरी नहीं है।हम नियम दिखाते हैं कि नौकरी का प्रावधान है तो कहते हैं कि विभागों में जगह खाली नहीं है।जबकि पिछले दिनों राजनांदगांव के चार लोगों को नक्सल पीड़ित बताकर पुलिस एवं अन्य विभागों में शासकीय नौकरी दी गई हैं।जब शासकीय नौकरी का प्रावधान नहीं है तो फिर उन चार लोगों को कैसे नौकरी मिली?सरकार का पक्ष रखते हुए छत्तीसगढ़ कांग्रेस प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी रमन सिंह सरकार की पुनर्वास योजना को विफल बताते हुए कहते हैं कि नक्सल पीड़ित राजनीतिक कारणों से भाजपा के इशारे पर इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं।
वे कहते हैं, ‘जो लोग आज खुद को नक्सल पीड़ित बताकर पुनर्वास की मांग कर रहे हैं, वे 14 सालों तक क्यों खामोश रहे? मतलब साफ है कि सरकार के खिलाफ यह भाजपा की साजिश है।उनकी बनाई नीति उनकी ही सरकार में लागू नहीं हुई, इसका दायित्व किस पर था? भाजपा पर था न, उसने अपनी नीतियों को लागू करके इन लोगों को फायदा क्यों नहीं पहुंचाया?यहां सवाल उठता है कि यदि रमन सरकार ने वादाखिलाफी की तो वर्तमान कांग्रेस सरकार तो पीड़ितों के हितों को ध्यान में रखकर फैसला ले सकती है वहीं, यदि तत्कालीन भाजपा सरकार की पुनर्वास नीति विफल थी तो क्यों कांग्रेस सरकार स्वयं एक सफल नीति लेकर नहीं आती जो नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों का पुनर्वास करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़े?इस सवाल पर शैलेश हालिया सेना-नक्सली मुठभेड़ के आलोक में कहते हैं, ‘इस समय तो नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई लगभग अपने अंतिम मुहाने यानी हिड़मा के गांव तक पहुंच गई है।अभी वह महत्वपूर्ण है।जहां तक पुनर्वास नीति का विषय है तो पीड़ित सड़कों पर राजनीति करने के बजाय संबंधित अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों से बात करें, उनकी मदद की जाएगी, जो वाजिब मांगें होंगी, वे मानी जाएंगी।सरकारी रवैये को लेकर शालिनी कहती हैं, ‘जमीनी स्तर पर सरकार बदलने का कोई खास फर्क नहीं दिखता,विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने नक्सलवाद संबंधी लंबे-चौड़े वादे किए थे,वे उन पर खरे नहीं उतरे, उनके आने से यहां शांति का वातावरण आ गया, ऐसा कहीं नहीं दिखता।नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई वाली बात पर ही धीरेंद्र अंत में एक अहम बात कहते हैं।वे कहते हैं, आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को जब उनके लिए बनाई गईं योजनाओं का ही लाभ नहीं मिलेगा और वे मीडिया में आकर बताएंगे कि सालों बाद भी हमें कुछ नहीं मिला है, तो बाकी नक्सली क्यों आत्मसमर्पण करेंगे? इतनी-सी बात सरकार समझ नहीं पा रही हैं।नक्सलवाद पर रिपोर्टिंग करते रहे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल इस संबंध में कहते हैं, ‘संसद/विधानसभा में पेश आत्मसमर्पण के आंकड़े बिल्कुल अलग होते हैं। वे जिला एसपी के भेजे हुए होते हैं।फिर उन तमाम लोगों की सूची पुलिस हेडक्वार्टर भेजी जाती है।वहां एक समिति तीन या छह महीने के अंतराल पर एक बार बैठती है जो तय करती है कि किसको नक्सली माना जाए।वहां आत्मसमर्पण के ज्यादातर आवेदन खारिज हो जाते हैं। उन्हें नक्सली नहीं माना जाता इसलिए पुनर्वास योजना का लाभ नहीं मिल पाता. 2014 में ऐसे 85 फीसदी आवेदन खारिज हुए थे।
यहां प्रश्न उठता है कि जिन लोगों को आत्मसमर्पित नक्सली नहीं माना गया तो वे कौन थे? और जब वे नक्सली नहीं थे तो क्यों स्थानीय पुलिस ने उनका आत्मसमर्पण दिखाया? क्या वे आम आदिवासी थे जिन्हें नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया गया,जैसा कि पहले भी लगातार होता आया है कि आम आदिवासी को पुनर्वास योजना के लाभों का लालच देकर पुलिस नक्सली बनाकर आत्मसमर्पण करा लेती है और अपनी रैंक में बढ़ोत्तरी व प्रमोशन जैसे लाभ पा लेती है? यह ट्रेंड तो और भी ज्यादा खतरनाक है।उल्लेखनीय है कि विपक्ष में रहते हुए 2018 में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले मीडिया से बातचीत में भूपेश बघेल ने कहा था, ‘नक्सलवाद को केवल बंदूक के दम पर खत्म नहीं कर सकते,लोगों का विश्वास जीतना होगा. लोग जो चाहते हैं वो काम नहीं करेंगे, तो नक्सलवाद को समाप्त नहीं कर सकते।इस संदर्भ में उनका कहना था, ‘यह सामाजिक-आर्थिक समस्या है,लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर रखा है जो कि उन्हें मिलने चाहिए,उनको काम में लगाइए,रमन सिंह पंद्रह साल में उन्हें काम नहीं दे सके क्योंकि उनकी दृष्टि ही गलत है, दृष्टिकोण ही गलत है।
आज ऐसे लोगों की पैरवी करने वाले विपक्ष के वही नेता स्वयं मुख्यमंत्री हैं और जिन पीड़ितों को लेकर उन्होंने सहानुभूति जताई थी, वे आज भी अपने अधिकारों से वंचित हैं।उनके पास काम नहीं है।वहीं, ‘लोन वर्राटू’ जैसे अभियान इस बात की पुष्टि करते हैं कि भूपेश सरकार भी बंदूक को ही तरजीह दे रही है। बघेल के ही पुराने शब्दों में सवाल करें तो क्या स्वयं उनकी भी दृष्टि गलत है या दृष्टिकोण गलत है?