क्रांति की बेला क्योंकि करने लगी पुकार,
लेखनी फिर आज मेरी गाने लगी प्रलय के राग।
याद वो हैं आ रहे आग में जो लौह थे ,
दुश्मनों की चाल में बन रहे अवरोध थे ।
उठी तलवार जो किसी की बन रहे वो ढाल थे,
टूट पड़े रणभूमि में वो बन कर काल थे।
नेत्र दृष्टि से उनकी बिखर पड़ी थी आग-आग,
लेखनी फिर- – –
पायलों की झनकार सुन ज्यों रोम-रोम फड़क उठे,
घायलों के घाव यों और भी असर करे ।
आंख चाहे राह ढूंढे बांह चाहे साथ छोड़े ,
घास की हों चाहे रोटियां पर मान का लिहाफ ओढ़े ।
हिल उठे थे सुषुप्त मन भी सुनी जब रण की हुंकार, लेखनी फिर- – –
मातृभूमि को देखता है कौन गिद्ध दृष्टि से,
वरद् हस्त मिला हुआ है जिस धरा को सृष्टि से।
कौन है जो मूर्ख बन स्वप्न में इतरा रहा,
बार-बार रेत में नादान महल बना रहा ।
जल रहे हैं इस ह्रदय में देश प्रेम के चिराग,
लेखनी फिर – – –
पर्वतों की श्रंखला और सागरों की मौज में,
घूमता है मन मेरा आज किसी की खोज में।
आग लगा दे मन में भाव ऐसे मिल सकेंगे ,
चेतना मिल जाए ऐसी लोग सोते जग सकेंगे ।
बहार ऐसी लाऊंगा मैं वन बनेंगे बाग-बाग,
लेखनी फिर- – –
झंझावात उठ रहे अनगिनत तुम अभी तक सो रहे ,
मृग-मरीचिका सी दुनिया में उतर कर खो रहे ।
भुजाएं फड़क न उठी तुम्हारी सुनकर धरा की कराह,
तुम्हारे इस मौन पर भर सकूंगा मैं मात्र आह ।
कुंठित सुरों के हर साज के गूंज उठेंगे तार-तार,
लेखनी फिर- – –
गदा उठाकर भीम और धनुष उठा अर्जुन बनो,
पर्वतों को तोड़ सको और बिंदु को भी भेद दो।
ठोकर तुम्हारी जहां पड़े जलधार वहां फूट पड़े,
क्रोध दृष्टि पड़े जिधर कहर वहां टूट पड़े ।
नैन मल के सो ना फिर
उठ जवान जाग-जाग,
लेखनी फिर आज मेरी गाने लगी प्रलय के राग
सतीश कुमार गुप्ता(सतीश गुप्ता पोरवाल)
मानसरोवर , जयपुर ।