1857 के नायक वीर योद्धा राव गोपाल देव जी!

अहीरवाल वैदिक काल से भारतीय सभ्यता, संस्कृति व इतिहास की महत्वपूर्ण धरा रही है। यहां तक कि विभिन्न अवसरों पर कवियों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को ‘वीर जननी धरा अहीरवाल’ कहकर संबोधित किया है। इस धरा ने ऐसे वीरों और राष्ट्रभक्तों को जन्म दिया है, जिनकी तलवारों की चमक ने दुश्मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इनमें भारत माँ के चिराग राव गोपालदेव जी का जन्म सम्मत 1886 आसोज मास, शुदी पक्ष तिथि अष्ठमी (6 अक्टूबर 1829ई०)में रेवाड़ी के राजा राव नन्दराम जी के राजघराने में हुआ इतिहास का बारिकी से अध्ययन करने पर असल चीज सामने आ जाती है।
पुराने जमाने में रेवाड़ी रियासत को उत्तरी भारत में एकमात्र मजबूत और सशक्त यादव रियासत होने का गौरव प्राप्त रहा है। इस शक्तिशाली रजवाड़े के कारण ही इस क्षेत्र के यादवों का पूरे देश में एक विशेष मान-सम्मान चला आता है। 30 दिसम्बर सन 1803 ई० का दिन रेवाड़ी रियासत का दिन रेवाड़ी के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण दिवस रहा, इस दिन दौलत राव सिंधिया ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर ली, उत्तरी भारत में आर्यावर्त के नाम से जाना जाने वाला ब्रजमंडल का यह क्षेत्र अंग्रेजों के कब्जे मेें चले गया। जिन लोगों ने अंग्रेजों की मदद की थी, उन्हें खूब दिल खोलकर जागीर आदि देकर मालामाल कर दिया। संधि के बाद से ही अंग्रेजों ने देश के शीर्ष सिंहासन पर बैठने की लालसा प्रबल होने लगी थी।लेकिन, देसी बहुत रियासतें अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण अंग्रेजों की यह योजना कामयाब नहीं होने पा रही थी। फिर भी अंग्रेजों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के षडय़ंत्र रचने शुरू कर दिए। इसमें उन्होंने फूट डालों, राज करों की नीति का सहारा लिया तथा उन्होंने जिन रियासतों के राजाओं के नि:संतान होने पर उन रियासतों को अपने प्रसंशकों के हाथों सौंपने की योजना तैयार की और उसे कानून बनाकर पूरे देश में लागू कर दिया गया। इन रियासतों की शिकार देश की अन्य रियासतों के साथ रेवाड़ी रियासत को भी होना पड़ा। उस समय रेवाड़ी रियासत के राजा राव हीरासिंह की नि:संतान मृत्यु होने के बाद रेवाडी रियासत का सारा कार्य राव हीरा सिंह की माता रानी मायाकौर के हाथों में आ गया। राजमाता रानी मायाकौर द्वारा रेवाडी रियासत का उत्तराधिकारी चुनने तक राजमाता ने राव हीरा सिंह के गोंसता( नौकर)व सगोत्रीय भाई राव तेज सिंह को रियासत का कार्य देखने के लिए अपना मुख्तयार नियुक्त किया। अंग्रेजों ने रेवाडी रियासत को जब्त करके इसकी बंदरबाट कर अपने चहेतों में बाँट दिया, जिनमें अलवर, पटौदी, झज्जर, फरूखनगर,लुहारु आदि प्रमुख है। राजमाता रानी मायाकौर ने रेवाडी रियासत के जब्त करने के षड्यंत्रों के खिलाफ दिल्ली में दावा दायर किया, जिसमें कहा गया कि यह खानदान सदियों से इस रेवाडी रियासत पर राज्य करता आया है और इस खानदान का वंश अभी आबाद है। इसलिए, रेवाडी रियासत के जब्ती के आदेश को निरस्त किया जाए। इस दावे की पैरवी का कार्य राजमाता ने राव तेज सिंह को सौंपा। लेकिन अंग्रेजों ने रेवाडी रियासत की कुछ जागीर को छोडकर इसकी बहुत बडी जागीर को बंदरबाट कर अपने चहेतों में बाँट दिया। वहीं अँग्रेजों ने राव तेज सिंह से मित्रता कर उन्हें 87 गाँवों की इस्तमरारी जागीर देकर एक बडा जागीरदार बना दिया। लेकिन, अँग्रेजों की फूट डालों की नीति पर तब पानी फिर गया जब राव तेज सिंह ने राजमाता रानी मायाकौर से रेवाडी रियासत की गद्दी पर अपने बडे लडके राव नाथूराम को गोद देने की इच्छा जाहिर की, जिसे राजमाता रानी मायाकौर ने स्वीकृति देकर राव नाथूराम को गोद लेकर गद्दी पर बैठा दिया। सन् 1823 ई़० में राव तेज सिंह की मृत्यु के बाद उनकी इस्तमरारी जागीर का आधा हिस्सा राव नाथूराम ने अपने छोटे भाई राव जवाहर सिंह को प्रदान कर दिया। इसी दौरान अंग्रेजों ने पूर्ण सिंह को राव तेज सिंह का तीसरा पुत्र होने का दावा दीवानी करने के लिए उकसाया, तथा पूर्ण सिंह को एक गुड़ वाले की फर्म से क़र्ज़ दिलाकर पूर्ण सिंह ने दावा दीवानी कर राव तेज सिंह को मिली इस्तमरारी जागीर में अपना हक माँगा। अदालत दीवानी से कोई जागीर न मिलने पर उन्होंने कमीश्नरी में एक अपील दायर की। अंग्रेज रेजिमेंट ने दखल देकर उन्हें कमीश्नरी में पूर्ण सिंह को जिताकर राव तेज सिंह की इस्तमरारी का तीसरा हिस्सा पूर्णसिंह को दे दिया। लेकिन, पूर्णसिंह पर मुकदमेबाजी से काफी कर्जा होने के कारण उनके इस्तमरार के चार- पाँच गाँव छोडकर सब कुर्क हो गए।सन् 1825ई़० में राव पूर्ण सिंह के पुत्र तुलाराम का जन्म हुआ, पूर्ण सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र तुलाराम 14 वर्ष की आयु में शेष रही जायदाद के स्वामी बने। अंग्रेजों के षडयंत्र में घिरी इस रेवाडी रियासत के राजा राव नाथूराम की रानी महाकौर ने सन् 1829ई़० में भारत माता के चिराग राव गोपाल देव को जन्म दिया। बालक गोपाल देव को राष्ट्र भक्ति की भावना विरासत में मिली थी। उन्होनें शिक्षा उस्ताद गुलाम जिलानी तथा घुडसवारी व शस्त्रज्ञान सैयद हुसैन अली से प्राप्त किया। राव गोपालदेव जी की तीन शादियां हुई थी, एक विवाह नसीबपुर(नारनौल) व दो विवाह उदयरामसर (बीकानेर-राजस्थान) में हुए। सन् 1849ई़० में राव गोपाल देव के चाचा राव जवाहर सिंह की निःसन्तान मृत्यु हो गई। राव जवाहर सिंह की जायदाद का हिस्सा लेने के लिए तुलाराम ने राव जवाहर सिंह की विधवा रानी रूपकौर व राव नाथूराम पर अदालत में दावा दायर किया, मुकदमा लम्बा चला। इसी दौरान रानी रूपकौर की मृत्यु हो गई तथा इसके कुछ समय पश्चात सन् 1855ई० में राव नाथूराम का देहांत होने पर उनके एकमात्र पुत्र राव गोपाल देव ने रेवाडी रियासत की बागडोर संभाली। परंतु, इस समय तक अंग्रेज इस रजवाडे को काफी नुकसान पहुँचे थे। इसी कारण राव गोपाल देव ने अंग्रेजों को भारत से खदेडने का बीडा उठाया। देश को आजाद कराने की इस ललक से गौरी सरकार काफी परेशान थी। राव गोपाल देव ने अपनी एक कूटनीति व्यूहरचना के तहत भारत के सिपाहियों में राष्ट्रभक्ति की भावना को जागृत करने के लिए वे अंबाला और मेरठ छावनियों में सक्रिय हो गए और यहाँ पर अंग्रेजी सेना में भारतीय सिपाहियों को विद्रोह के लिए तैयार किया। अंग्रेज इतिहासकार जे.डब्लू.के.ये. ने भी इसका उल्लेख किया है। ‘दि मेरठ नैरेटिव पुस्तक से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। निश्चित योजना अनुसार 10 मई 1857 को मेरठ में इस योजना का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हुआ। राव गोपाल देव के निर्देश पर अंग्रेज सेना के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया तथा वहाँ की जनता ने भी क्रांतिकारियों का साथ दिया। मेरठ को आजाद कराने के बाद 11 मई को राव गोपाल देव क्रांतिकारियों के साथ दिल्ली पहुँचें, वहाँ बादशाह बहादुर शाह ज़फर के साथ आगे की रणनीति पर मंत्रणा की। यहा से राव गोपालदेव अपनी राजधानी रेवाडी की ओर रवाना हुए। क्रांति की भडकती लपटों को देखकर 13 मई को तत्कालीन डिप्टी कमीश्नर विलियम फोर्ड घबराकर अपने अफसरों के साथ गुडगाँव छोडकर भाग खडा हुआ और भोंडसी, पलवल के रास्ते मथुरा पहुँच गया। राव गोपाल देव ने रेवाडी पहुँचकर अपनी सेना संगठित की तथा अपने मामा चौ० सेढू सिंह बहरोड निवासी को अपना कूटनीतिक सलाहकार नियुक्त किया।
17 मई को तहसीलदार व थानेदार को बंदी बनाकर अंग्रेजों को राजस्व वसूली से रोका ओर बोहडा-बादशाहपुर पर पुनः अपना कब्जा जमा लिया। इस क्रांति की लपटे देश में चारों और फैल गई। देश में क्रांतिकारियों के बढते साहस से अंग्रेज सरकार हताश हो गई। जो लोग निजी स्वार्थ से वशीभूत होकर अंग्रेजों से मिले हुए थें अपने-अपने राजाओं से समझोते करने लगे इधर बदली स्थिति को देख तुलाराम ने राव गोपाल देव से सुलह कर ली। जून के महीने में मेजर विलियम ऐडन, जो कि जयपुर में पोलिटिकल एजेंट था। वह जयपुर की सेना के बल पर दिल्ली जाकर क्रांतिकारियों को दबाना चाहता था वह उन लोगों से मदद मांगने निकला जो लोग अंग्रेजों से मदद ले रहें थें, उसने तुलाराम से मुलाकात कर मदद माँगी। परन्तु, तुलाराम ने यह कहकर इंकार कर दिया कि सभी कमान राव गोपाल देव के पास है। मैं मदद देने में असमर्थ हूँ, इन बदली हुई परिस्थितियों और क्रांतिकारियों को मिल रहे जनसमर्थन के कारण मेजर ऐडन निराश होकर जयपुर वापस लौट गया। सितम्बर के अंत में दिल्ली पर अंग्रेजों का दोबारा अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने पुनः इन देशभक्तों को कुचलने और अहीरवाल में भडक रही क्रांति की लपटों को रोकने के लिए ब्रिगेडियर सावर्स ने 7 अक्टूबर 1857 को 1500 सैनिकों के साथ रेवाडी पर अचानक हमला बोल दिया। राव गोपाल देव अपने महल (रानी की ड्योढी) के सुरंग के रास्ते अपने किले गोकलगढ पहुँचने में कामयाब हो गए। किले से अपनी सेना व अस़ला लेकर ब्रि० सावर्स की शक्तिशाली सेना का मुकाबला किया।
कडे संघर्ष के बाद अंग्रेजी सेना झज्जर की तरफ भाग खडी हुई। अंग्रेज हकूमत गोपाल देव की इन क्रांतिकारी गतिविधियों से बडी विचलित हो उठी और इनको कुचलने के लिए एक विशाल सेना तोपखाने के साथ कर्नल जे.जे. जेरार्ड के नेतृत्व में भेजी। इसकी सूचना मिलते ही जोधपुर शेखावाटी के विद्रोही सैनिक दस्ते व अन्य क्रांतिकारी देशभक्तों की सैन्य शक्ति भी राव गोपाल देव से आ मिली। राव गोपाल देव ने सुरक्षा की दृष्टि से कानोड (महेंद्रगढ) के किले को मोर्चे के लिए उपयुक्त समझा।क्योंकि, इस किले का निर्माण राव गोपाल देव के पूर्वजों ने क्षेत्र की भौगोलिक व सामरिक विषेशताओं को ध्यान में रखकर कराया था। किन्तु, इस किले का किलेदार देशद्रोही निकला और किला सौंपने से इन्कार कर दिया। राव गोपाल देव ने इस परिस्थिति में अन्य क्रान्तिकारियों सेे मंत्रणा कर निर्णय लिया कि महेंद्रगढ से कुछ मील दूर नसीबपुर के मैदान में अंग्रेजी सेना से भिडने के लिए अपना मोर्चा लगाया। नसीबपुर में राव गोपाल देव ब्याहे थे व मशहूर व संपन्न ठिकाना होने के कारण राव गोपाल देव को बाहुबल के साथ-साथ सेना के लिए अन्न व धन का पूरा सहयोग मिला। वही उनके ननिहाल बहरोड जो युद्ध के मैदान से कुछ मील दूर होने के कारण बहरोड के चौधरियों ने भी तन,मन,धन से पूरा साथ दिया। 16 नवम्बर 1857 को दोनों सेनाएँ एक दूसरे के सामने खडी थी। मातृभूमि की स्वतंत्रता के मतवालों ने अपने शीश हथेली पर रखकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। राव गोपाल देव की शमशीर शत्रु सैनिकों के सिर को धड से अलग कर उनके रक्त से अपनी प्यास भुजा रही थी। राव गोपाल देव के शौर्य और वीरता की कहानी इस युद्ध में भाग लेने वाले अंग्रेज कैप्टन स्टेवर्ड ने जिन शब्दों में की है, वह यहाँ के बहादुरों के खून से लिखी एक अमर दास्ताँ को प्रस्तुत करती है। भारतीय सेना भूखे शेर की तरह गौरी सेना पर टूट पडी। इस भीषण प्रहार से गौरी सेना तिलमिला उठी। इस युद्ध में अँग्रेजों के बहुत से सैनिक मारे गए और कर्नल जेरार्ड व ब्रिटिश सेना का कमांडिंग अफसर भी मारे गए। नसीबपुर के मैदान में इन मुट्ठी भर क्रांतिकारियों ने अँग्रेजों की भारी सेना के छक्के छुडा दिए।
युद्ध की देवी स्वतंञता का चयन ही करने वाली थी कि अंग्रेजी सेना को पटियाला,नाभा और कपूरथला जींद के राजाओं की सेना अंग्रेजों से आ मिली। घर की फूट ने चमत्कार दिखाया। आजादी के दीवानों को पराजय का मुँह देखना पडा। तथा मैदान अंग्रेजों के हाथ लगा राव गोपाल देव अपने कुछ सैनिकों के साथ नसीबपुर की समरभूमि से जोधपुर से आए दस्ते के साथ जोधपुर चले गए। भारत माँ की आजादी के दीवाने राव गोपाल देव फिर से क्रांतिकारियों को इकट्ठा करने व अंग्रेजों को देश से खदेडने में जुट गए। उन्होंने देश के अन्य राजाओं से मदद माँगी। इसी दौरान सन् 1858ई० में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया का सरकारी ऐलान हुआ, जिसमें तमाम विद्रोहियों को राज क्षमा प्रदान करने की घोषणा की गई। इसे पढकर कुछ विद्रोहियों ने भी तत्कालीन गवर्नर जनरल केनिंग के पास अपना माफीनामा भेजा।
अंग्रेजों की तरफ से राव गोपाल देव को भी माफीनामा देने की पेशकश की गई, परन्तु राव गोपाल देव ने इस पेशकश को ठुकरा दिया। जब बीकानेर के राजा को यह पता लगा कि अंग्रेज जोधपुर पर दबिश देने वाले है तो उन्होने राव गोपाल देव से जोधपुर से बीकानेर रियासत आने की सलाह दी। क्योंकि, बीकानेर रियासत तटस्थ थी ना तो अंग्रेजों के खिलाफ ना ही हक में थी, इसलिए अंग्रेज बिना राजा की इजाजत के बीकानेर की सीमा में नही घुस सकते थे, ये सब बीकानेर के राजा ने इसलिए कहा क्योंकि बीकानेर के राजा के साथ रेवाडी राजघराने के पारिवारिक संबंध थे। राव गोपाल देव अब जान गए थे कि बिना किसी बाहरी सहारे के अंग्रेज जैसे दुश्मन को परास्त करना संभव नहीं है। लेकिन, अंग्रेजों के भय के कारण यहाँ के रजवाडों से भी मदद मिलना असम्भव था। बीकानेर के राजा के अफगान व ईरान के शाहों से अच्छे संबंध थे। उन्होंने साथ चल रहे संदिग्ध लोग जिनका अंग्रेजों से मिल जाने का खतरा था उन्हें एक योजना के तहत प्रोत्साहित कर मदद लाने के लिए मुस्लिम देश ईरान व अफगान भेजा, ताकि ये लोग अंग्रेजों से नं मिल सकें। गौरी सरकार ने राव गोपाल देव व बहादुरशाह जफ़र पर बगावत का मुकदमा चलाया तथा राव गोपालदेव को जिंदा या मुर्दा गिरफ्तार करने के पूरे देश में इश्तेहार चस्पा कराकर यह आदेश जारी किए कि इस खानदान के साथ वह बर्ताव अमल में लाया जाए जिससे इस खानदान की माली हालत व शान-शौकत भविष्य में नं पनप सकें। इस विषय में उस समय के राजस्व रिकार्ड के अनुसार तत्कालीन गवर्नर जनरल के विभिन्न आदेशों के तहत राव गोपाल देव की रेवाड़ी रियासत के तमाम गाँव जिनमे गोपालपुरा वर्तमान में रामपुरा व रेवाडी भी शामिल था, नीलाम कर अपने चहेतों में बाँट दिए। भारत माता के सपूत राव गोपाल देव आँखों में आजादी का सपना संजोए अंग्रेजों की पकड से बाहर रहे। अंत में अंग्रेजों ने सन् 1862ई़० में उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनकी याद में रेवाडी राजवंश के वंशज एवम् (सामाजिक संगठन )अहीरवाल आंदोलन के संयोजक राव बिजेन्द्र सिंह के प्रयासों से हरियाणा की तत्कालीन हुड्डा सरकार द्वारा रेवाडी-महेन्द्रगढ रोड पर राव गोपाल देव की विशाल प्रतिमा स्थापित कराई गई है। यह प्रतिमा आने वीली पीढियों को राव गोपाल देव के शौर्य व उनके बलिदान की याद ताजा करती रहेगी और इलाके की जननियों को शूरवीर व देशभक्त बनने की प्रेरणा देता रहेगी।
आज वीर एवं शहीदी दिवस पर प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के अमर शहीद राव गोपालदेव व सभी अनाम वीर एवम् शहीदों को शत्-शत् नमन।

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