बड़ी सोच में हूँ
ये रिश्तों के धागे
इतने उलझे क्यों होते है,
क्यों नही होते फूलों से
सरल सच्चे सीधे,
क्यों अभिनय में गुज़र
जाता हैं रिश्तों का
सम्पूर्ण जीवन,
क्यों स्वांग रचा जाता हैं
गहरे मीठे रिश्तों में,
क्यों नही उनको
वैसे स्वीकारा जाता
जैसे वे हैं,
क्यों होती हैं
झूठे अहम की दीवार रिश्तों में,
क्यों नही प्रेम से पोषित
करते है हैं मन को,
मैंने जितना सुलझाया रिश्तों को
अगला सिरा उतना ही
उलझा मिलता मुझें,
लाख कोशिशों के बावजूद
मैं यथावत वही स्वंम को
स्थिर पा रही हूँ
जँहा से तोड़ा मरोड़ा गया
नाज़ुक खूबसूरत रिश्ता,
कोशिश लाख बार करूँगी
टुटूंगी, बिखरूँगी फिर
भी बार बार करूँगी,
मैं उलझे धागों की तह तक जाऊँगी
मैं सुलझा लुंगी हर एक धागा
जो प्रेम को प्रेम से जोड़ता हैं।
डिम्पल राकेश तिवारी
अयोध्या, उत्तर प्रदेश