सुनो शाम तो तुम्हारे वहां भी
होती होगी न
क्या मेरी तरह तुम भी
सूरज ढलते ढलते
होने लगते हो बेचैन
भीतर महसूस होती है क्या
असहाय होने की
छटपटाहट
क्या बेबसी का समां
हर पल हर लम्हा
तुम्हें भी कचोटता है
क्या तुम्हारा भी बिलकुल
वैसे ही दिल घबराता है
जैसे तुम्हें न पाकर
मेरे सीने में धड़कते
इस नन्हें से जीव का
जैसे मैं तुम्हें
हर शै में देखती हूं
क्या तुम भी मुझे ही
महसूस करते हो
कतरे कतरे में
क्या मेरी अनुपस्थिति
कर देती है
तुम्हारे गात को भी निष्प्राण
क्या थोड़ी थोड़ी देर में
हर तरफ तुम्हारी नज़रें भी
मुझे ढूंढा करती हैं
क्या अपूर्णता का एक एहसास
ले रहा है हिचकोले
भीतर में तुम्हारे
क्या तुम भी
मिलकर मुझसे
मेरी धड़कनों के स्पंदन को
ठहराव देना चाहते हो
क्या मेरे सामीप्य को
तुम भी पाना चाहते हो
क्या तुम भी विकल और
विह्वल हो गए हो
बिलकुल मेरी तरह
पिंकी सिंघल, दिल्ली