वह नन्हीं चिड़िया –
अपने पंख फड़फड़ा कर
हौले से मेरे करीब आ गई थी ।
अपने मासूम सवालों से
मेरा हृदय वेध गई थी ।
उसने पूछा था
इतने अशक्त -अशांत
क्यों लगते हो ?
भीड़ भरे संसार में
खोए खोए से रहते हो ।
वह शरारत,वह जिंदादिली
जो तुम्हारा आभूषण थी
कहां खो गई ?
वह रंगीन सपने
जो तुम्हारी आंखों में तैरते थे
उनकी शोखी क्या हो गई ?
कितनी बार
शरारत की टोकरी के नीचे
लालच की रोटी रख
तुमने डोर खींची थी ।
मुझे पकड़कर बड़े प्यार से
मेरी देह
भाँति भाँति रंगों से सींची थी।
अपने करुणामयी भावों से
मुझे भय मुक्त बनाया था ।
फिर तुम्हारा नाम
क्रूरता का प्रतीक क्यों है ?
तुम्हारी देह पर
लहू के निशान क्यों हैं ?
जवाब मेरे पास था।
लेकिन उस मासूम की
समझ से परे ।
हालातों के शरों से
छलनी शरीर से
जो चुहचूहा रहा है ये रक्त ,
इन्हीं जख्मों की वेदना से
हो गया हूं इतना असक्त ।
डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक