बहू हूं मैं आपकी मुझको स्वीकारिये
बेटी किसी के बाग की मुझको स्वीकारिये
छोड़ के मैं सब कुछ अपना आयी हूँ यहाँ
मन की भावनाओं से मुझको स्वीकारिये,
गोरी नही काली हूँ तो क्या बुरा हुआ
दान-दहेज न लायी हूँ तो क्या बुरा हुआ
कहते है जोड़ी बनती है रब के जहाँ में
संस्कारों में मैं ढ़ली तो क्या बुरा हुआ।
एक गरीब बाप के घर और गुल खिले हुये
आमदनी है कम मगर खर्चे खिले हुये
कशमकश मे जान उसकी मगर क्या करे
मन ही मन घबराये वो चेहरे खिले हुये,
दूल्हा-दुल्हन जो बिक रहे समाज में यहां
अब रंग रूप में बट रही बेटियाँ यहाँ
पर बहू सभी को सर्वगुण संपन्न चाहिये
अब समाज में ढकोसले के पिंजड़े यहाँ।
झरना माथुर, प्रसिद्ध रचनाकार
देहरादून (उत्तराखंड)