कविता : ठिठुरती ज़िन्दगीयां

शीतल शैलेन्द्र “देवयानी”
इन्दौर (कवित्री)

ठिठुरती ज़िन्दगीयां
रास्तों पर क्यूं
सिसक सिसक कर रोती है
कोहरे की मार और
सर्द रातों में
अधखुले से बदन
फुटपाथों पर सोती है
जहां महलों में एक ओर
मखमली अहसास पनपते हैं
बच्चे खाकर भरपेट सर्दियों में
ओढ़ रजाई बेफिक्री से सोते हैं
वहीं गरिबों के बच्चे
पेट की आग से झुलसते
सदियों के अंगारों में जलते है
ठिठुरन सर्दी की और
सिहरन पेट की ज्वाला से
गरबों की मन दहकते है
मौज मनाती हैं कहीं ज़िन्दगी
कहीं पर अनगिनत फुटपाथी
जाड़ों में भी बिन रजाई
बिन कथरी और कंबल के
न जाने कैसे कैसे जीते है
कोहरा पाला और कभी कभी
प्रभु की बरसाई मधुशाला से
गमो और अश्कों से
दामन अपना रंगते है
ठिठुरन देह की
सोने तो क्या
जीने भी नहीं देती है
देह बेचारी रोते रोते
ठिठुरन भरी जाड़े की
सर्द रात में
ओढ़ पाले की चादर
आसमान के नीचे
जीवन को अक्सर विराम लगा
अलविदा कह देती है।।

शीतल शैलेन्द्र “देवयानी”
इन्दौर

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