चिंता !

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लोग कहते हैं कि
बचपन में मैं बहुत शरारती था
मौका मिलते ही
सबकी नजर चुरा भाग जाता था
मैं पेड़ो पर चढ़कर
लब्बोलैया खेलता था
नहरों, तालाबों और नदियों में
घंटों नहाता था
चौपाल पर बुजुर्गों की बातें
बड़ी तन्मयता से सुनता था
वहां इतिहास पर बात होती थी
राजनीति पर चर्चा होती थी
बड़ी शिक्षाप्रद होती थी
बाबा की कहानियां
गीता के श्लोक
रामायण की चौपाइयां
हम सज धज कर बस्ता लादे
विद्यालय जाते थे
जहां गुरु पढ़ाने के साथ-साथ
हमें सुनहरे सपने दिखाते थे
चौपाल की चर्चाएं
बाबा की कहानियां
कब संस्कार बन गए
पता नहीं
विद्यालयों में दिखाए गए सपने
कब जुनून बन गए
पता नहीं
थोड़ा बड़े हुए
तो कॉलेज पहुंच गए
छात्रावास में इश्तियाक और महमूद
मेरे रूम पार्टनर बन गए
तब धर्म और जाति के प्रति
मुझ में नफरत नहीं थी
तब जनहित और विकास के
अलावा कोई सियासत नहीं थी
मेस में महाराज और मखनचू
खाना बनाते थे
मां की तरह परोस कर
प्यार से खिलाते थे
मैं मुसलमानों की बस्ती में रहता था
लेकिन कभी किसी से डर नहीं लगता था
आजाद परिंदों की तरह
आंखों में बसे सपनों में
आकाश की ऊंचाइयों को
छू लेना चाहता था
ईद की सिवंइयां
इश्तियाक खिलाता था
अपने त्योहारों के बारे में
वह अक्सर बताता था
वह महमूद को काफिर कहता था
क्योंकि वह नमाज नहीं पड़ता था
मस्ती करते पढ़ते लिखते
हम बड़े हो रहे थे
अब हम दुनियादारी समझने लगे थे
राजनीति पर भी नजर रखने लगे थे
क्योंकि हमने भारत के
स्वाधीनता आंदोलन को पढ़ा था
गांधी भगत सिंह और अशफाक
जैसे ना जाने कितने
महापुरुषों को मन में
तस्वीर के रूप में गढ़ा था
देश वैश्विक पटल पर
उगते हुए सूर्य की तरह
चमक रहा था
ये सब मेरे पूर्वजों का दिया
हुआ था
जो मोहब्बत बनकर
हम सब पर बरस रहा था
पिछले कई दिनों से मन में
एक सवाल खटक रहा है
जो सोते जागते
मेरे भीतर अटक रहा था
अपनी आने वाली पीढ़ियों को
हम क्या देकर जाएंगे
हम विनाश की इबारत
लिखते रहे
नफरत की सियासत
करते रहे
बाग, बन, नदियां, झीलें
तालाब, पहाड़, पशु, पक्षी
समाज, इंसानियत
हम सब खा गए
वीरान, श्मशान सा
देश और समाज
यह अचानक
हम कहां आ गए
जब कुछ लोग
तबाही का खेल,
खेल रहे थे
तब हम मौन थे
इतिहास यह बात
जरूर लिखेगा
पीढ़ियां हमें धिक्कारेंगी
इतिहास अपराधी
की तरह हमें देखेगा।

डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक

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