..डा. राजेश सिंह…
़़़़़बदलता परिवेश़़़़़
शहरी जीवन की भाग दौड़ से
थक जाता था जब मन ,
उड़ कर अपने गॉव पँहुचता
छट जाते अवसाद के घन !
किसकी नजर लगी गॉवो के
किसने बोये बिष बीज यहॉ ,
लोग जहॉ मासूम थे कल तक
मिली कुटिलता उन्हे कहॉ !
यहॉ पर अब सब बदल चुका है
मानव, धरती और गगन ,
यहॉ दिशायें भ्रमित हो गयीं
सहमी सहमी सी दिखी पवन !
गॉवों में अब लोग नही हैं
बागों में फल फूल नही हैं ,
फुदकी चिड़ियों के झुंड नही हैं
बरगद पर अब गिद्ध नहीं है !
चौपालों पर लोग नही हैं
होली में अब फाग नही हैं ,
कुँयें बाबड़ी सब खो गये
ताल तलैया लोप हो गये
जब से चिकनी सड़के चलकर
शहरों से पँहुची हैं गॉव ,
बदली है तस्वीर गॉव की
फैले कथित विकास के पॉव !
बाजारों की चकाचौंध और
टी.वी. की बेलगाम कौंध ,
रिश्ते सारे हो गये अजनबी
संस्कृतियों को डाला रौंद !
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