कुछ वंधन ऐसे होते हैं // सुप्रसिद्ध कवि अशोक पटसारिया नादान की कलम से  

             
कुछ वंधन स्नेहसिक्त हों, 
         जीवन के एकाकीपन को।
वरना बहुत दर्द देते है,  
       भीतर से दुखियारे मन को।।
पीड़ा आज हवा से मिलके,
        स्मृतियों की खिड़की खोले।
और कुरेदे घाव पुराने,      
              हौले हौले हमसे बोले।।
दिल पर जोर नहीं होते है,    
             कुछ बंधन ऐसे होते हैं।।   
              
मन आहत है मन दुखियारा,
          मन से सारा जग ही हारा।
मनकी चाहत हुई ना पूरी,
      मनका मीत मिला ना प्यारा।।
मनका मायाजाल कठिन है,
         तोड़ सका ना इसको कोई।
मन ने अपनी अपनी गाथा,  
            अपने अपने ढंग से रोईं।।
खेल सभी मन के होते है,       
             कुछ बंधन ऐसे होते है।।
                
नींद आंख से ओझल होकर, 
            जाने कहाँ चली जाती है।
बहुत कोशिशें करता हूँ पर, 
         मुझको नींद नहीं आती है।।
सारी रात करवटे बदली,  
       तारे गिन-गिन के निकली है।
उसका ख्याल नहीं हटता है,   
            जाने वो कैसी पगली है।।
आंख नहीं आंसू रोते है,        
             कुछ वंधन ऐसे होते हैं।।
                
मिला चकोरी को क्या चंदा, 
       राधा को क्या कृष्ण मिले हैं।
प्रेम विरह की इस पीड़ा में,  
         सबनें अपने होंठ सिले हैं।।
इसे कसौटी पर कसने को,  
          एक पतिंगा जल जाता है।
और दर्द में तप करके वो,   
          एक कहानी बन जाता है।।
जिनको जगते वो सोते हैं,      
             कुछ वंधन ऐसे होते हैं।।
              
सागर का ज्यों प्रेम नदी से,
       पागल बादल का धरती से।
यही प्रेम है जीव ब्रम्ह का,
      मिले पपीहा जब स्वाति से।।
मीरा प्रेम मगन हो नाची,
         राधा थी दर्शन की प्यासी।
ढाई आखर को जो समझे
        नादां उसकी मिटे उदासी।।
प्रेमी पागल ही होते हैं।
           कुछ वंधन ऐसे होते हैं।।
                
बंधे कर्म बन्धन में सारे,
            राजा हों या रंक विचारे।
संत महंत सिद्ध मुनि जोगी,
      कर्णधार जन जन के प्यारे।।
भीष्म मिली बाणों की शय्या,
       रावण को परिणाम मिले है।
केवट ने प्रभु चरण पखारे,
       शबरी को श्री राम मिले हैं।।
कर्म प्रबल जैसे होते हैं,
            कुछ बंधन ऐसे होते हैं।।
                  
जीवन में इक पल आता है,
         जब यौवन दस्तक देता है।
उसका चिंतन सांझ सबेरे,
             सारी पीड़ा हर लेता है।।
आंखें उसे खोजतीं हर पल,
            मीत मिलेगा जाने कैसा।
ऐसा होगा तो फिर कैसा,
           ऐसा होगा तो फिर ऐसा।।
कई सवाल दिल में होते हैं।
           कुछ बन्धन ऐसे होते हैं।।
                   
जब इक दूजा भा जाता है,
           एक समय ऐसा आता है।
दिल के तार धड़कने लगते,
     जब जज्बात भड़कने लगते।।
फिर बंधन की तैयारी में,
         पाणिग्रहण की आभारी में।
सबको साक्ष्य बनाया जाता,
        तब जुड़ता है अपना नाता।।
देव पितृ भी खुश होते हैं,
             कुछ बंधन ऐसे होते हैं।।
               
ऐसा कोइ मिले जिसे हम,
         दे दें अपना तन मन सारा।
जीवन के एकाकीपन को,
       मिल जाए मजबूत सहारा।।
मन का मीत मिले तो अपने,
                 प्राण उसी पर वारूं। 
कभी हारकर खुशी मनाऊं,
               कभी जीतकर हारूं।। 
साथी ऐसे भी होते हैं,
           कुछ बंधन एसे होते हैं।।
        
अशोक पटसारिया नादान लिधौरा,टीकमढ़ मध्यप्रदेश

     

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