लेखक:विजय प्रताप
संस्थापक/ अध्यक्ष: प्रो यूथ फाउंडेशन
पर्यावरण-चिंता और जलवायु चिंता ऐसे शब्द हैं जो आजकल मीडिया में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं। समाचार पत्रों के लेखों, वृत्तचित्रों, साक्षात्कारों, ब्लॉगों और अन्य मीडिया की एक विशाल श्रृंखला है जो पारिस्थितिक संकट से संबंधित चिंता पर चर्चा करती है। ये घटनाएँ बढ़ती शोध रुचि का विषय भी हैं हालाँकि, ऐसी चिंताओं के विभिन्न रूपों और पारिस्थितिक संकट के अन्य मनोवैज्ञानिक प्रभावों के साथ उनके संबंध के बारे में अभी भी शोध की भारी कमी है। यह स्पष्ट है कि बहुत से लोग पर्यावरण-चिंता से पीड़ित हैं, लेकिन इसका मतलब किस प्रकार की चिंता है, और समाज और स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों को उन पर कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए? चूंकि जलवायु परिवर्तन और अन्य पारिस्थितिक संकटों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण होने का अनुमान है उनके बारे में बढ़ती समझ की सख्त आवश्यकता है। खेंती से जुड़ी हर गतिविधि को भारत में उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है। ऋतुओं के अनुसार खेती की वैज्ञानिक परंपरा भी है। अन्न से काबोर्हाइड्रेट, दालों से प्रोटीन, फल-सब्जियों से विटामिन सभी भारत की भोजन की थाली में मिलता है। और यह सब मेहनतकश किसानों द्वारा देश को उपलब्ध करवाया जाता है। उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और नीच चाकरी (यानी नौकरी) ऐसी कहावत देश में प्रचलित रही है।
कृषि योग्य भूमि बनाने के उपक्रम में 50 प्रतिशत वृक्ष खत्म हुए हैं। समुद्र के उपयोग में भारी बदलाव से सामुद्रिक पारिस्थितिकी भी बदली है। उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग की वजह से रसायन भारी मात्रा में पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। भूमि का क्षरण हो रहा है। वन आवरण घटने पर है। नदियों के जल स्तर में गिरावट आ रही है। भूजल स्तर घट रहा है। ग्लेशियर खिसक रहे हैं। जीवन शैली में आए बदलाव से तरह–तरह की गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष का परिणाम पर्यावरण संकट के रूप में आ रहा है। हवा, पानी और भोजन जैसे जीवन के लिए अनिवार्य तत्व घोर प्रदूषण की गिरफ्त में आ रहे हैं। मौसम में बदलाव को लेकर पृथ्वी पर आपातकाल लगाने जैसी स्थिति उभर रही है। पृथ्वी पर हावी हो रहे मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों की पूरी शृंखला को तनावग्रस्त बना दिया है।