पतझडों में ठोक कर सीना निकलते
हम बहारों में नहीं हैं सिर्फ खिलते
अनुभवों से लें सबक जो और के वो
जिंदगी की राह में कब हैं फिसलते
हाथ पर जिनको भरोसा मित्र होता
लेख किस्मत के लिखे उनके बदलते
ज्योति जलती जब भरोसे की ह्रदय में
शक शिखर सारे दिलों से है पिघलते
शान से आँखें उठाके कब जिये वो
आसरे से और के जो लोग पलते
हर घड़ी मुस्तेद जो रहते नहीं है
लोग ऐसे मात खाकर हाथ मलते
दंड के है योग्य मत संकोच कीजे
मूँग सीने पर अगर है लोग दलते
माँ पिता की नेकियों का यह सिला है
पुण्य फल संतान को है सत्य फलते
भूख इतनी आदमी की बड़ गई है
पुल सड़क तालाब घर नहरें निगलते।
ऐ अरुण किस पर भरोसा अब करें हम
अंश ही अपने हमें जब नित्य छलते
अरुण दुबे