-: चित्र आधारित सृजन :-
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-: गीत :-
मापनी :- 16 – 14
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-: हरियाली की चाहत :-
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उजड़ा-उजड़ा लगता मधुवन,
कैसे धरती सहन करे ?
हरियाली की भीख माँगते,
कानन-उपवन रुदन करे ।
उजड़ा-उजड़ा लगता मधुवन …
स्वार्थ पूर्ति के खातिर मानव,
वृक्षों को है काट रहा ।
चाहे जड़ हो या हो चेतन,
सबको मौतें बाँट रहा ।
मानव दानव हुआ जा रहा ,
कैसे कोई नमन करे ?
हरियाली की भीख माँगते,
कानन-उपवन रुदन करे ।
उजड़ा-उजड़ा लगता मधुवन….
देखो धरती माँ की गोदी,
सूनी-सूनी लगती है ।
करतूतों को देख-देख कर,
आहें भरती रहती है ।
ऐसे लगता अब तो इनको,
यज्ञ-कुण्ड में हवन करें।
हरियाली की भीख माँगते,
कानन-उपवन रुदन करे ।
उजड़ा-उजड़ा लगता मधुवन…
दूषित जल और दूषित वायु,
दूषित पूरा उपवन है ।
ऐसे लगता है धरती पर,
दूषित सबका जीवन है ।
चलो साथियों हरा-भरा अब,
फिर से अपना चमन करें ।
हरियाली की भीख माँगते,
कानन-उपवन रुदन करे ।
उजड़ा उजड़ा लगता मधुवन…
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गजेन्द्र हरिहारनो”दीप” डोंगरगाँव जिला राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)
सर्वथा मौलिक सृजन