मुर्दा शांति से भरा हुआ समाज !

तुम बुलडोजर चलाओ, हमारे घरों को जमींदोज कर दो, तुम लाठियां चलाओ,निरीह और मासूमों पर, हां गोलियां भी चलाओ और कत्ल कर दो किसी भी आम शहरी को।तुमने नफरतों के बीज बोये थे। हम जानते थे कि फसल लहलहाये गी। वह लहलहा रही है। चारों तरफ नफरत की बयार बह रही है। संविधान को रायसीना हिल्स की दीवारों के पीछे कैद कर दिया गया है। अदालतें चुटकुले सुनने और ठहाके लगाने में ब्यस्त हैं। संसद में तो बैठे ही हैं मवाली और गुंडे। समूचा देश पुलिस स्टेट में तब्दील हो गया है। फासीवाद का यही असली चेहरा है। हम कबीलों की तरफ लौट कर आ गये हैं। हम सामंतवादी व्यवस्था की तरफ लौट कर आ गये। जहां एक आदमी ही संविधान, संसद और अदालत सब कुछ होता है। जहां इंसान गुलाम समझा जाता है। उसके साथ जानवरों जैसा सलूक होता है। हमारे पुर्वजों ने एक‌ लंबी लड़ाई लड़कर इन सब से हमें मुक्त कराया। एक मानवीय समाज की स्थापना के लिए अपना लहू बहाया। अपनी प्राणों की‌ आहूतियां दी। क्या इसीलिए कि हम फिर लौटकर वही पंहुच जायें। हम फिर उसी दलदल में कूद जायें। मन में एक सवाल उठने लगा है कि क्या अवाम को गुलामी ही पसंद है। क्या हमारे महापुरुषों और क्रान्तिकारियों ने व्यर्थ ही हमारी मुक्ति की लड़ाई लड़ी और शहादतें दी??? अगर ऐसा नहीं है तो उस समय जब फासीवादी ताकतें नफरत‌ के बीज बो रही थी, जब हमें आपसी वैमनस्य की आग में झोंकने की साजिशें रच रही थीं तब हम खामोशी से सब देख रहे थे। हम समझ रहे थे कि हमारी आजादी पर हमला है। हमें गुलामी के दलदल में धकेलने की साजिश है। तो हम बोले क्यों नहीं, हम लड़े क्यों नहीं। जो आजादी हमें विरासत में मिली उसकी रक्षा के लिए हम क्यों खड़े नहीं हुए। इस भयानक फासीवादी हमले के ‌ बीच भी कुछ लोग थे जो फ़ासिस्टों से लड़ रहे थे । और हमें आगाह कर रहे थे। लेकिन हम फिर भी नहीं बोले। क्योंकि हम तो हिंन्दू और मुसलमान के मंचन पर चटखारे ले रहे थे। पत्थरों में भगवान खोज रहे थे। और अभी भी हमें मजा आ रहा है कि मुसलमान मारे जा रहे हैं, मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर गरज रहे हैं। आप जाहिल हैं, नासमझ हैं, मक्कार हैं सब कुछ समझ कर भी नसमझी का ढोंग किये बैठें हैं। ये भेड़िए हैं, इन्हें खून से मतलब है, इन्हे मांस से मतलब है। वो किसी का भी हो, हिंदू का हो, चाहे मुसलमान का‌ हो,सिख का हो, चाहे ईसाई का हो। एक बार विरोध कर के तो देखिये, अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा कर तो देखिये। तुम्हारा घर भी बुलडोजर की जद में न आ जाए तो कहना। तुम्हारी हड्डियां भी पुलिस की लाठियों से चकनाचूर न हो जाए तो कहना। याद है न विकास दुबे, मोहित गुप्ता जैसे सैकड़ों लोगों की मौत। इलाहाबाद में रोजगार मांग रहे छात्रों पर लाठियां और गोलियां याद है न। शायद तुम्हें कुछ नहीं याद है क्योंकि तुम मुर्दा शांति से भरे हुए हो। तुम्हे गुलामी पसंद है। बधाई हो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को वह अपने मकसद में कामयाब हो गए। संविधान और लोकतंत्र की रक्षा हम नहीं कर पाये। अब रिमोट तुम्हारे‌ हाथ में है। ‌हम सब कठपुतली हैं। जैसे चाहो नचाओ। मजदूरी कराओ या कत्ल कराओ, हम सब जो हुकुम मेरे आका की मुद्रा में आपके सामने खड़े हैं। हमें अपने आप से घिन आती है, क्योंकि मैं भी इस मुर्दा समाज का हिस्सा हूं।

डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक

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