समाजवादी राजनीति के महापुरोधा का महाप्रयाण !

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अचानक विश्वास नहीं हुआ! मुलायम सिंह नहीं रहे, सुनकर भी अनसुना करने का मन हुआ। लेकिन यही सच था। धरतीपुत्र का जाना, लाखों लाख लोगों के दिलों पर पहाड़ टूट पड़ा। हर आंख नम थी। वह इस अप्रत्याशित घटना को देखने और सुनने को जैसे तैयार नहीं थे। आसमान की भी छाती फट पड़ी और वह रो पड़ा। मुलायम सिंह मुक्ति यात्रा पर निकल गए, अब वह कभी नहीं दिखेंगे। वह नहीं रहे, लेकिन लाखों कहानियां जो इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं, उनके माध्यम से वे हमेशा हम सब के साथ रहेंगे। उनकी सोच, उनका संघर्ष, उनके विचार विरासत के रूप में इस धरती पर रहेंगे। मुलायम सिंह होना यूं ही नहीं होता, यह समय की विराट परिघटना होती है। और आसान नहीं है उन्हें संपूर्ण समझ पाना। पचपन साल का राजनीतिक इतिहास और हर पल की अपनी एक कहानी, कितनी कहानियां होंगी पता नहीं। साठ के दशक में एक अति पिछड़े परिवेश में एक युवा अध्यापक राजनीति में अपना भाग्य आजमाने निकल पड़ा था। शिक्षा का प्रचार और प्रसार करते करते वह कब नेताजी बन गए, पता ही नहीं लगा। राम मनोहर लोहिया के साथ राजनीतिक पारी शुरू करने वाले मुलायम सिंह, कौन जानता था कि राजनीति की प्रयोगशाला बन जाएंगे। वह परंपरागत राजनीति की मथनी बन गए। खासकर उत्तर प्रदेश की राजनीति और समाज को इतनी गंभीरता से मथा था कि वह प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर छा गए। यह उनका हौसला था, उनके संघर्षशीलता थी। यह उनकी जीवटता थी , उनका अक्खड़पन था। कोई यूं ही धरतीपुत्र नहीं बन जाता। उनका जमीनी संघर्ष और जन जुड़ाव उनकी राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता थी। जन जुड़ाव ऐसा कि जिससे एक बार मिले उसे मरते दम तक नहीं भूले। संबंधों को बनाना और उन्हें भरपूर जीना ही उन्हें नेताजी बनाती है। उनके अंदर का राजनीतिज्ञ जब अंगड़ाई ले रहा था, तब हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा नहीं था कि पिछड़ा समाज से आने वाला कोई व्यक्ति सर्व स्वीकार हो जाए। इस देश के साथ एक विसंगति जो अभिशाप की तरह आज भी जुड़ी हुई है। वह यह कि यहां अगड़ी जातियों का महिमामंडन और उनकी शासक के रूप में स्वीकार्यता समाज के रक्त में शामिल है। मीडिया से लेकर शासन और प्रशासन तक, यहां तक कि सामाजिक रूप से यह स्वीकार्यता एक सच है। ऐसे में मुलायम सिंह को स्वयं को स्थापित करने में कितना जूझना पड़ा होगा, इसका सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वह विराट व्यक्तित्व लिए हुए सामान्य कद काठी के साथ अपने दृढ़ संकल्प और निर्णायक क्षमता के साथ जब आगे बढ़े तो समूचे कैरियर में वह देश और प्रदेश की राजनीति की धुरी बने रहें। चाहे वह जनता पार्टी की सरकार बनने की घटना हो या फिर जनता दल का सत्ता में आना हो। उनमें किसी भी परिस्थिति में फैसले लेने की अद्भुत क्षमता थी। वह बहादुर थे, निर्भीक थे, उन्हें जो सही लगता था उसे कर गुजरने में कतई देर नहीं लगाते थे। वह चाहे 1999 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का फैसला रहा हो या 2008 में जब वामपंथियों के केंद्र में कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद बाहर से समर्थन देकर सरकार बचाने का मामला हो। वह जिंदगी भर आलोचनाओं से घिरे रहे। उन पर कभी जातिवाद के आरोप लगे तो कभी परिवारवाद के आरोप लगे। कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देने के बाद उन्हें मुल्ला मुलायम सिंह और मौलाना मुलायम सिंह जैसे नामों से नवाजा गया। उन पर मुस्लिम प्रेम के आरोप हमेशा लगे। उनके फैसले सही थे या गलत इसकी समीक्षा में जाने का कोई मतलब नहीं है। इसकी समीक्षा यह देश करता आया है, और आगे इतिहास करेगा। 29 अक्टूबर और 2 नवंबर 1999 की अयोध्या की घटना के बाद उन्हें अपने फैसले पर कोई कभी कोई कोफ्त नहीं था। उस समय का उनका एक बयान टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा था कि “देश की एकता के लिए अगर सुरक्षाबलों को गोलियां भी चलानी पड़ती तो वे चलाते और चलाते”। वह अपने फैसलों में व्यक्तिगत या राजनीतिक नफा नुकसान की गणित में नहीं जाते थे। उनके सामने देश का संविधान और लोकतंत्र की सुरक्षा का मुद्दा अहम होता था। अपने राजनैतिक कैरियर में उनकी तमाम खासियतों में एक और बड़ी खासियत थी वह यह कि वह अपनी राजनीतिक स्वायत्तता और वर्चस्व को बचाए रखते थे। वह अपने संघर्ष के दिनों के साथियों को खास तवज्जो देते थे। शुरुआती दिनों में साइकिल से चुनाव प्रचार करने वाले नेता जी जब पहली बार कार लाए तो तेल के पैसे नहीं होते थे। तब उनके गांव के लोग चंदा करके उन्हें पैसा देते थे। उन्होंने एक बार भोजन त्याग कर मुलायम सिंह को नेताजी बनाया। और नेता जी भी उस भावना को जीवन भर नहीं भूले वह सात बार सांसद, आठ बार विधायक, तीन बार मुख्यमंत्री और केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे, लेकिन अपना मुख्यालय गांव में ही बनाए रखा। यह जुड़ाव उनका जीवन भर बना रहा है। जो यात्रा उन्होंने सैफई से शुरू की थी, सैफई में ही खत्म की। उसी मिट्टी में मिल गए जिस मिट्टी के वह बने थे। 1968 में लोहिया जी के निधन के बाद वह चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल से दूसरी बार विधायक चुने गए। बीकेडी, जनता पार्टी, लोक दल, जनता दल से होते हुए 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया। लोहिया जी के साथ काम करने से समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में उन्होंने अपनी खास पहचान बनाई। हालांकि वह सभी वर्गों के लिए काम करते रहे, खासकर गरीब और शोषित समाज के साथ-साथ किसानों के लिए जो उनकी पीड़ा और उनकी सरकार में किसान हितों को ध्यान में रखते हुए कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए वह ऐतिहासिक हैं। इसीलिए उन्हें धरतीपुत्र भी कहा गया। वह अजातशत्रु थे। वैचारिक और राजनीतिक मतभेदों के बावजूद उनके सभी से आत्मीय व्यक्तिगत संबंध रहे। वह समाजवाद का परचम उठाएं, सिर पर लाल टोपी धारण किये लोकतांत्रिक भारत के हितैषी बनकर राजनीति की नई परिभाषा गढ़ते चले गए। जीवन भर विरोधियों से उलझते रहे, लड़ते रहे। लोग उन्हें लड़ाका कहते थे। लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं होता था। उनका जन्म ही शायद संघर्षों के लिए हुआ था। इसीलिए वह तमाम उम्र सड़क से संसद तक संघर्ष सिर्फ संघर्ष ही करते रहे। तमाम साजिशों और दुष्चक्रों के बावजूद उनकी अंत्येष्टि पर जिस तरह समूचे देश के पक्ष और विपक्ष के सभी दिग्गज नेता उपस्थित हुए, उससे उनकी हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है वह दंड देना जानते हैं, तो क्षमा उनका स्वभाव है। वह मतभेदों में उलझते हैं लेकिन खुशहाली का आशीर्वाद देते हैं। वह महान समाजवादी पुरोधा थे। यह देश उन्हें हमेशा याद रखेगा। अंत तक वह अपनी लाल टोपी (समाजवाद) से लगाव नहीं छोड़ पाए। उनके महाप्रयाण के समय में भी वही टोपी लगाए हुए गए। वह राजनीति में एक युग की तरह आए इसीलिए मैं कहना चाहता हूं कि समाजवादी राजनीति के एक युग का अंत हो गया। उनके जाने से राजनीति में एक ऐसा शून्य उभरा है जो शायद कभी भरा नहीं जा सकता।

डा.राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक।

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