बाराबंकी। हिन्दू धोबी रिजर्वेशन पाए और मुस्लिम धोबी धक्के खाए: यह कैसा इन्साफ है सेकुलरिस्म हिंदुस्तान की ज़रुरत है. ज़रुरत इसलिए क्योंकि हमारे मुल्क में मुक्तलिफ़ मजाहिब को मानने वाले लोग रहते हैं. हमने इरादतन अपने मुल्क का सेकुलर आईन बनाया ताकि सभी मजाहिब के मानने वालों के साथ इन्साफ हो सके।
यह बात ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसीम राईन ने अपने एक बयान में कही हैं उन्होंने कहा सेकुलर निजाम की ज़रुरत शायद इसलिए भी थी क्योंकि ऐसे निजाम में ही कमजोर, पिछड़े तबको और अकलियतों की तरक्की मुमकिन है. हमारा सेकुलर आईन सरकारों और उसके मुक्तलिफ़ विभागों को यह हिदायत देता है कि वो मजहब के आधार पर किसी भी तरह का कोई भेद भाव नहीं बरतेंगे. लेकिन इस देश में सरकारें आईन के सेकुलर उसूल के खिलाफ कई बार काम करती आयीं हैं. Presidential Order, 1950 , जो कि हिन्दुस्तानी आईन के दफा 341 के तहत लाया गया है, इसकी जीती-जागती मिशाल है. यह 1950 का आर्डर मजहब के आधार पर भेद भाव करता है. इसके तीसरे हिस्से में 1956 से पहले लिखा गया था कि हिन्दू मजहब के मानने वाले दलित समाज के लोग ही सिर्फ Scheduled Caste (SC ) माने जायेंगे. 1956 में इस आर्डर में तब्दीली की गयी और सिख मजहब के मानने वाले दलितों को इसमें शामिल कर लिया गया. इसके बाद 1990 में बौद्ध मजहब के मानने वाले दलित समाज के लोगों को भी इसमें जोड़ दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि सिख और बौद्ध मजाहिब के मानने वाले दलित समाज के लोगों को भी रिजर्वेशन के फायदे हिन्दू दलितों के साथ मिलने शुरू हो गए. लेकिन जो दलित समाज के लोग इस्लाम और इसाई मजाहिब में शामिल हुए उनको यह रिजर्वेशन का फायदा नहीं मिल पा रहा है क्योंकि यह लोग Presidential Order,1950 के दायरे में शामिल नहीं हैं. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो मजाहिब हिंदुस्तान में पैदा हुए इनके मानने वाले या बाद में इन मजाहिब में शामिल हुए दलित समाज के लोगों को तो रिजर्वेशन का फायदा मिल रहा है और जो दलित समाज के लोग हिंदुस्तान के बाहर से आये मजाहिब जैसे इस्लाम और इसाई मजहब में शामिल हुए इनको रिजर्वेशन का हक नहीं है. यह तो साफ़ तौर पर नाइंसाफी है क्योंकि हिंदुस्तान में मजहब बदलने से जात-पात नहीं बदल जाती है. हिन्दू दलित समाज के लोग चाहे वो किसी भी मजहब में अपना मजहब बदल कर गए बदनसीबी से जात-बिरादरी उनके साथ ही गयी. मजहब की तब्दीली के बाद भी दलितों के तालीमी और समाजी हालात वही रहते हैं, इसलिए सिर्फ हिन्दू, सिख और बौद्ध मजाहिब में रहे या गए दलितों को को ही रिजर्वेशन देना और दूसरे मजाहिब जैसे इस्लाम, पारसी और इसाई में गए दलित समाज के लोगों को रिजर्वेशन से महरूम रखना आईनी एतबार से ठीक नहीं है. बड़ी अजीब बात है की हिंदुस्तान में जात-पात के निजाम ने इतनी मजबूत जड़े बना ली हैं कि इंसान अपना मजहब तो बदल सकता है पर जात नहीं. जात उसको ज़िन्दगी भर परेशान करती है और मरने के बाद भी पीछा नहीं छोडती.
1985 में सुप्रीम कोर्ट ने Soosai Versus Union of India 1985 (Supp SCC 590) के फैसले में कहा था कि जात मजहब बदलने के बाद भी जारी रहती है. इसलिए कोई भी दलित समाज का फर्द चाहे सिख, बौद्ध, इस्लाम और इसाई मजहब में जाये उसकी जात उसका पीछा नहीं छोडती. हिन्दुस्तानी समाज में जो नुकसानात जात से जोड़ दिए गए हैं वो उसका पीछा बदले हुए मजहब में भी करते हैं. कोई इसको माने या न माने पर हर धर्म के मानने वाले ज़यादातर लोग जात-बिरादरी के वायरस से आज भी उसी सिद्दत से बीमार हैं जैसा पहले थे और उन्होंने अपनी यह बिमारी आज के मॉडर्न ज़माने में भी कमोवेश जारी रखी हुई है. जात-बिरादरी से जुड़े नुकसानात उतने ही बराबर हैं चाहे दलित समाज के लोग किसी भी मजहब में जायें. फिर क्यों नहीं जो दलित समाज के लोग इस्लाम और इसाई मजहब में जाते हैं उनको Scheduled Caste का फायदा दिया जाता है? यह तो मजहब के आधार पर भेद भाव हुआ. जब मजहब बदलने पर तालीमी और समाजी हालात वही रहते हैं तो फिर यह भेद भाव क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवम्बर, 1992 को अपने Indra Sawhney Versus Union of India (Supp 3 SCC 217 ) के फैसले में माना था कि जात सिर्फ हिन्दुओं तक ही महदूद नहीं है, यह दूसरे मजाहिब के मानने वालों में भी पाई जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने बिलकुल सही पहचान की और यह सच्चाई भी है. हालांकि सिख, बौद्ध, इस्लाम और इसाई मजाहिब में जात-पात का कोइ तजकिरा नहीं है. यह सभी मजाहिब उसूलन इंसानों की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन इनके मानने वाले सिखों, बौद्धों, मुसलमानों और इसाईयों में जात-पात देखने को मिलती है. जात-पात समाज की एक कडवी हकीकत के तौर पर हमारे सामने मुंह बाए खड़ी रहती है. जो लोग हिन्दू दलितों से सिख, बौद्ध, मुस्लमान या इसाई बने वो आज भी अपनी जात-बिरादरी का दाग अपने सर पर ढौह रहे हैं. इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता.
दलित समाज से जो लोग मुस्लमान या इसाई बने उनके लिए Scheduled Caste दर्जे की मुफलिफत करने वाले लोग कहते हैं कि यह रिजर्वेशन का फायदा मुसलमानों और इसाईयों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस्लाम और इसाई मजहब में जात-बिरादरी का कोई तसव्वुर नहीं है. हाँ यह सच है. लेकिन अगर यह तर्क माने तो सिख और बौद्ध मजाहिब भी जात-पात के खिलाफ ही खड़े हुए और इनमे भी जात-पात की मनाही है पर इन मजाहिब के मानने वालों में भी जात-पात पायी जाती है और इसके वावजूद रिजर्वेशन का फायदा उनको मिल रहा है. फिर क्यों नहीं ये फायदा उन दलित समाज के लोगों तक पहुंचना चाहिए जिन्होंने इस्लाम या इसाई मजहब कबूल किया. यह कैसा इन्साफ है कि समाज में हसियत एक पेशा एक और सरकारी फायदों में भेद भाव. क्या यह इंसाफी है कि हिन्दू धोबी को तो रिजर्वेशन मिले लेकिन मुस्लिम धोबी का नहीं, जबकि समाज में इनकी एक ही हसियत है और पेशा भी. इन दोनों में ही तालीमी और समाजी पिछड़ापन है. फिर क्यों नहीं Scheduled Caste से जुड़े फायदे दोनों को ही दिए जाते हैं इस मसले पर बहुत सी कमीशन और कमेटियों की रिपोर्ट आ चुकी हैं. 1969 में एल्यापेरुमल कमेटी ने कहा था Scheduled Caste से जुड़े फायदे गैर-हिन्दू दलितों को भी मिलने चाहिए. मंडल कमीशन ने 1980 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जात-पात हिन्दू मजहब में है पर इसका असर दूसरे धर्मों में भी मिलता है. 1983 में गोपाल सिंह कमीशन ने भी माना था कि आडर 1950 में तरमीम हो ताकि इसके फायदे दूसरे मजहिब में गए दलित समाज के लोगों को भी मिलें. मरकजी अकलियती कमीशन ने भी पुरजोर तरीके से कहा है कि 1950 के आर्डर में तरमीम करके मुस्लिम और ईसाई समाज में गए दलितों को रिजर्वेशन और दूसरे फायदे जो Scheduled Caste को मिलते हैं वो मिलने चाहिए. इस 1950 के आर्डर को गैर-आईनी करारे देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में 3 और मुक्तलिफ़ हाई कोर्ट्स में 7 रिट पेटिसन ज़ैरे गौर हैं. 21 मई 2007 को रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने भी 1950 के आर्डर को गैर-आईनी करार दिया है और अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस आर्डर में मजहब की बुनियाद ख़त्म की जाये और Scheduled Caste उन सभी दलितों को माना जाये जो किसी भी मजहब में चले गए हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह 1950 का आर्डर किसी भी हिन्दू दलित को कोई और मजहब अपनाने से रोकता है और यह हिन्दुस्तानी आईन में दी गयी उसकी मजहबी आजादी के हक की खिलाफ वर्जी है. इससे किसी भी इंसान को अपनी मर्ज़ी का मजहब अख्तियार करने पर रोक लगती है, क्योंकि अगर कोई हिन्दू दलित सिख और बौद्ध मजहब के अलावा कोई और धर्म अख्तियार करेगा तो उसको Scheduled Caste को दिए गए रिजर्वेशन के सारे फायदे से महरूम होना पड़ेगा. यह आईन की दफा 14 , 15 ,16 और 25 के खिलाफ है. आईन के मुताबिक न तो रिजर्वेशन मजहब के आधार पर हो सकता है और ना ही मजहब के आधार पर रिजर्वेशन छीना जा सकता है. लेकिन यह 1950 का आर्डर तो यही कर रहा है कि यह उन दलितों से रिजर्वेशन छीन लेता है जो गैर-हिन्दू मजाहिब जैसे इस्लाम, ईसाईयत, पारसी बगैरह में शामिल हो जाते हैं मुझे लगता है कि हिंदुस्तान में जो लोग दलितों की लडाई लड़ रहे हैं उनको 1950 को तरमीम कराने की लडाई लड़नी होगी ताकि दलित समाज के लोग जो किसी भी मजहब में हों, जिनको समाज के ज़रिये सदियों के सताने और जुल्मात से जख्म मिले हैं, वो जख्म उनके भर सकें, वो तालीमी इदारों और नौकरियों में आ सकें. अगर दलित समाज के लीडरान ऐसा नहीं करते हैं तो यह सन्देश जायेगा कि दलित सिर्फ हिन्दू और उससे जुड़े मजाहिब से ही हो सकता और उन्ही को फायदा पहुंचे. और आम लोग यह भी सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि जो दलित समाज के लोग दूसरे मजहिब में चले गए उनकी दलित समाज के लीडरान को कोई चिंता नहीं है. मतलब यह निकलेगा कि अब भी दलित सिर्फ हिन्दू समाज में ही बंधा रहना चाहता है और बाबा साहेब भीम राव आम्बेडकर की वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ सारे संघर्षों को दलित लीडरान ने भुला दिया है. और अगर ऐसा नहीं है तो दलित समाज के लीडरान को लड़ना होगा।
सेकूलरिस्म हमारे आईन का अहम् उसूल है लेकिन 1950 का यह आर्डर इस उसूल के बिलकुल खिलाफ है। इसे जितनी जल्दी दुरुस्त किया जायेगा उतना बढ़िया है. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर जल्दी ही अपना फैसला सुनाएगा. मरकजी सरकार को भी इस गैर-आईनी आर्डर को जल्द से जल्द तरमीम करके मजहब की बुनियाद Scheduled Caste से हटा लेनी चाहिए अगर इतनी सारी कमीशन और कमेटी की रिपोर्टों के बाद भी सरकार इस आर्डर को तरमीम नहीं करती है तो यह हमारे मुल्क के सेकुलर निजाम के लिए बढ़िया बात नहीं है. सभी मजाहिब में मौजूद दलित समाज के लोगों का विकास इससे जुडा हुआ है. इससे तालीमी इदारों में, नौकरियों में, सियासी रिजर्वेशन (पंचायतों, विधानसभा और लोकसभा की सीटों में ) और जो कानून दलितों के ताफ्फुज़ में जैसे SC /ST (Prevention of Atrocities) Act , 1989 , Prevention of Civil Liberties Act ,1955, बनाये गए हैं इनका फायदा हर मजहब में मौजूद या गए हुए दलित समाज के लोगों को मिलेगा। सेकुलर आईन और निजाम में फायदे मजहब के आधार पर नहीं बल्कि तालीमी और समाजी हालात के आधार पर दिए जाने चाहिए।