नवरात्र के त्योहार चल रहे थे । मेरे घर के पास रहने वाले शर्मा जी ने मेरी बेटी को कन्या भोजन का आमंत्रण दिया। क्योंकि मेरी बेटी को अकेले जाने में असहजता महसूस हो रही थी, तो मैं उसे अपने साथ लेकर उनके घर गई। छोटी छोटी कन्याओं को प्रेमपूर्वक भोजन करवा कर उनके पैर पूजे जा रहे थे। सभी बच्चियां भोजन का आनंद ले रही थीं । श्रीमती शर्मा जी खुद भोजन परोस रही थीं ।
मैने उनसे पूछा कि आज आपकी बहू नहीं दिखाई दे रही – प्रेगनेंट है न वो? ‘
मिसेज शर्मा धीरे से मेरे पास खिसककर धीरे से मेरे कान में बोली – क्या बताऊँ! आप तो घर की हैं किसी से कहिएगा नहीं, उसे फिर से लड़की थी। आबोरशन करवा दिया, मायके गई है आराम करने।’ अब बस माता रानी से प्रार्थना है अगले नवरात्र तक एक पोता दे दें।
मैं स्तब्ध रह गई, लगा मानो किसी ने मेरे पैरों तले जमीन खींच ली – हैरानी हो रही थी कन्या पूजा के ढकोशले पर । खुद पर क्रोध आ रहा था – ‘ अपनी बेटी को ऐसे घर क्यों ले आई ? दम घुटने लगा था वहाँ मेरा ।
थोड़ी ही देर बाद मिसेज शर्मा ने मुझसे पूछा -” आप कन्या पूजन नहीं करती?” जी में तो आया कि कह दूँ – “मैं इन ढकोशलों के बजाय कन्याओं को घर में सम्मान से जन्म लेने देने में विश्वास रखती हूं ।” किंतु पड़ोस धर्म के कारण कुछ कह न सकी, बस अंदर ही अंदर घुट रही थी, कि क्या हो गया है हमारे समाज को एक तरफ देवी को पूजते हैं और दूसरी तरफ देवी को कोख में ही मार देते हैं ।
संगीता झा “संगीत” (शिक्षिका, लेखिका, नई दिल्ली)