जंगलों में लगी भीषण आग,
चारों तरफ धुंआ ही धुंआ
धधकते पहाड़,भयभीत वन्य जीव
मूक पशु पक्षी सब ख़ाक हैं….
तेजी से सूखते जाते जल स्त्रोत
देखकर ऐसा हाल मन बेहद दुःखी है
अब वन महकमा भी सोया है
या कोई और बात है…
चीख चीखकर कहते पेड़ सुनो व्यथा हमारी
जान है हममें भी,काटने पर दुःखता है
जलकर तड़फते फ़िर टूटकर गिरते हैं और
दर्द से खून के आंसू रोते हैं हम भी…
रे निर्मोही मानव अपने हाथों काट काटकर मुझे
छाया और मेरे अमोल उपहार फ़िर कहां पाओगे
बदलते मौसम,प्राकृतिक,मानवकृत आपदाओं से
प्रकृति के मौन संकेत को अब तक नहीं समझ पाये कि
पेड़ों को बर्बाद कर तुम बर्बादी से कैसे बच पाओगे…
आज कुछ इंसान तड़फ रहे चंद साँसों के लिए
कल पूरी कायनात तरसेगी ज़िंदगी के लिए क्योंकि
प्राणवायु देने वाले पेड़ तो निबट चुके होंगे और
साँसों की कालाबाज़ारी करने वाले भी
तुमसे मुँह फ़ेरकर किनारा कर जायेंगे…
सिर्फ खामोश खड़े वृक्ष,पादप ही नहीं
प्रकृति और मानव जीवन का आधार हैं हम
निर्जीव पेड़ नहीं हममें संगीत है जिसे सुन
हर्षित हो झूमते लहराते हैं
पोषण पा हरियाते और दुलार पा मुस्काते हैं हम…
पेड़ नहीं तुम्हारी संतान जैसे हैं हम भी
जो अच्छी परवरिश पा जीवन भर
अच्छा फल देते हैं गर छेड़ोगे तो तुम और
तुम्हारी भावी पीढ़ी साथ भोगेगी ये तय है…
कैसे आज हवा खरीद रहे हो भारी कीमत पर
अभी वक़्त है संभल जाओ वरना जो हाल मेरा आज है
यकीनन कल वही तुम्हारा होगा और
यकीन करो तुम्हारा कल मेरे आज से कहीं ज्यादा
भयावह और बेहद दुःखदायी होगा…
नीलम नेगी
अल्मोड़ा ( उत्तराखंड)