फिर से कुछ जयचंद बने हैं // सुप्रसिद्ध कवि व लेखक देवेन्द्र सिंह की कलम से

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

पावनता पर नये लांछन
धूर्त अपावन लगा रहे हैं ।
जिनको लज्जित हो जाना था
वह करतल ध्वनि बजा रहे हैं ।

अरे अभागो ! मनुज जन्म का
भाग्य सुमन फिर नहीं खिलेगा ।
और जन्म यदि मिला कहीं तो
धर्म सनातन नहीं मिलेगा ।

कुण्ठाओं में धर्म द्रोह के
क्या क्या तुम्हें कुफल बतलायें ?

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

पुण्य सनातन वैदिक पथ ने
हर युग में प्रतिमान गढ़े ।
वेद विहित सब ज्ञान लिये हम
उन्नति के सोपान चढ़े ।

वामपंथ के कुटिल खलों ने
धर्म नीति से विरत कर दिया ।
नित नूतन षड़यंत्र रचाकर
मन में हिन्दू अहित भर दिया ।

उथले कूपों को कैसे हम
महा सिन्धु क्या है सिखलायें ?

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

हमने विश्व – गुरू बन कर के
गुरुता का अभिमान जिया है ।
सदियों पहले ग्रह नक्षत्र की
गणनाओं का ज्ञान दिया है ।

उसी सभ्यता के गौरव पर
मूढ़ कुलक प्रतिघात कर रहे ।
और सनातन के कुल घालक
दुष्टों को बर्दाश्त कर रहे ।

लोकतंत्र की पंचायत में
झूठे नित सच को झुठलायें ।

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

कभी ह्दय व्याकुल हो उठता
सुख के शेष दिवस गिन गिन कर।
काश्मीर बंगाल केरला के
दुख क्रूर कथानक सुन कर ।

संकट है आसन्न शीश पर
धर्म धरा पर दृष्टि गढ़ी है ।
शत्रु ताक में घात लगाये
हमें जाति की मदिर चढ़ी है ।

फिर से कुछ जयचंद बने हैं
कितने नाम यहाँ गिनवायें ?

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

यह कविता कल्पना न किंचित
बीते दृश्य उकेर रहा हूँ ।
अनुभव से भावी चित्रों पर
सच के रंग बिखेर रहा हूँ ।

जो तटस्थ , निरपेक्ष धर्म पर
उपहासों को सहन कर रहे ।
सच मानो अपनी संतति का
भाग्य सुनहरा दहन कर रहे ।

धर्म रहित जीवन की राहें
गन्तव्यों तक कभी न जायें ।

कहाँ व्यथायें मन की गायें
आहत उर किसको दिखलायें ?
अपने ही आघात कर रहे
क्या फिर गैरों को समझाएं ?

देवेन्द्र सिंह
गाँव- छोटी बल्लभ
अलीगढ़, उप्र

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