कजरी , गीत, मल्हार लिखूँ
सावन में मोद मनाऊँ ।
या दरवाजे तक आ पहुँची
करुण चीख को गाऊँ?
आह ! आज निर्लज्ज मनुजता
मूक बधिर दिखती है ।
रक्त पिपासु भीड़ पार्श्व में
क्रूर कथा लिखती है ।
विचलित सा हो उठा ह्दय
उस क्रंदन की आहों से ।
छीन जलाये गये दुधमुंहे
माँओं की बाहों से ।
ममता के घायल आँचल के
कैसे दृश्य भुलाऊँ?
कजरी , गीत, मल्हार लिखूँ
सावन में मोद मनाऊँ ।
या दरवाजे तक आ पहुँची
करुण चीख को गाऊँ?
नोंच रहे हैं क्रूर दरिन्दे
अबलाओं के तन को ।
कातर आँखें लिये अभागे
तड़प रहे जीवन को ।
नर पिशाच कर अट्टहास
जो रूधिर बहाते हैं ।
मनुज सभ्यता पर कालिख
हर बार लगाते हैं ।
अन्तर्मन को लगी गहन सी
ठेस किसे दिखलाऊँ?
कजरी , गीत , मल्हार लिखूँ
सावन में मोद मनाऊँ ।
या दरवाजे तक आ पहुँची
करुण चीख को गाऊँ?
उससे भी है दुखद कहानी
अन्दर अपने घर की ।
कुछ हताश कुण्ठित कंठों से
उठे घृणा के स्वर की ।
जनता के ठुकराये कुछ सठ
वही स्वप्न पाले हैं ।
तन पर जितना धवल आवरण
उतने मन काले हैं ।
मन करता है इन दुष्टों को
ठेल वहीं पहुँचाऊँ ।
कजरी , गीत, मल्हार लिखूँ
सावन में मोद मनाऊँ ।
या दरवाजे तक आ पहुँची
करुण चीख को गाऊँ?
देवेन्द्र सिंह
गाँव- छोटी बल्लभ
अलीगढ़, उप्र