अपनी क़ीमत जब भी आंकी हमने इस मंहगाई में।
भूक ही भूक नज़र आई है रोटी की गोलाई में।
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इसका हल अब आयत में है और न है चौपाई में।
बरकत भी अब कहां रही है अपनी नेक कमाई में।
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जाने कैसी बारिश है अब मौसम की अगवाई में।
काग़ज़ की इक नाव है प्यासी बचपन की अँगनाई में।
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राजा रानी चाँद सितारे परियों का अदभुत जादू,
नानी क्या क्या जड़ देती थी क़िस्सों की तुरपाई में।
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नन्हीं नन्हीं आशाओं के हाथ लगी है मायूसी,
जब भी कभी उतरकर देखा अपनी ही गहराई में।
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पुरखों ने जो दौलत छोड़ी थी अपनी आवाज़ों की,
हवस उसे पाने की देखी गूंगे बहरे भाई में।
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अंधों ने तो जलता सूरज कब का अंधा कर डाला,
बीनाई अब भी उलझी है अपनी ही दानाई में।
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कैसे अब त्यौहार मनाऊं ग़म का इस्तक़बाल करूं,
नमक तेल के सारे पैसे हो गए खर्च दवाई में।
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चूल्हा चौका झाड़ू पौंछा कपड़े बर्तन चावल दाल,
अक्सर मां की शक्ल नज़र आती है घर की माई में